सदा अचेत चेत जीव पंखी, हरि तरवर करि बास ।
झूठ जगि जिनि भूलसि जियरे, कहन सुनन की प्रास ।।
सूक बिरख यहु जगत उपाया, समझि न परै विखम तेरी माया
साखा तीनि पत्र जुग चारी, फल दाइ पाप पुंनि अधिकारी ।।
सवाद अनेक कथ्या नहीं जांहीं, किया चरित सो इन मैं नाही
पपा अपार पार नहीं पावा, परम जोति सी परयो अावा ॥
पांची इदी निग्रह कर, तर पाप पुनि दोन संचरै ।
फफा बिन फूलां फल होई, ता फल फफ लहै जो कोई ॥
दूणी न पड़े फूक विचारे, ताकी फूक पबै तन फारै ॥
अबा बंदहि बंद मिलावा, बंदहि बिंद न बिछुरन पावा ॥
जे बंदा बंदि गहि रहै, तो बदिग होइ सधै बद लहै ॥
भभा भेदै भेद नहीं पावा, अरभ भांनि ऐमो यात्रा ॥
जो बाहिरि सो भीतरि जाना, भया भेद भूपति पहिचाना ॥
___ममा मन सौ काज है, मनमान्यां सिधि होइ ॥
मनहीं मन सौं कहै कबीर, मन सौ मिल्या न कोइ ॥
ममां भूल गह्यां मन माना, मरमी होइ सु मरमही जाना ॥
मति कोई मन सौं मिलता विलसाव, मगन भया नै सोगति पावै ॥
जजा सुतन जीवतहीं जराव , जोबन जारि जुगति सो पावै ॥
अं संजरि वुजरि जरि वरिहै, तब जाइ जोति उजारा ल है।
ररा सरस निरस करि जाने, निरस हाइ सुरस करि मान ॥
यह रस बिसरै सो रस हाई, सो रस रसिक लहै जे कोई ॥
लला लहै। तो भेद है, कहूँ तो को उमगार ॥
बटक बीज मैं रमि रह्या, ताका तीन लेकि विस्तार ॥
ववा वोइहि जाणिये, इहि जाण्यां वा होइ॥ ।
वोह अस यहु जबहीं मिल्या, तब मिलत न जाणे कोइ ॥
ससा सो नीका करि सोध, घट परया की बात निरोधै।
घट परयौ जे उपजै भाव, मिलै ताहि त्रिभुवनपति राव ॥
पषा खोजि परे जे कोई, जे खोजै सो बहुरे न होई ॥
पोजि बूझि जे करै बिचार, तो भा-जल तिरत न लागे षा
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कबीर-ग्रंथावली