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कबीर-ग्रंथावली

प्ररधक उरध क ये संन्यासी, ते सब लागि रहैं अबिनासी ॥
अजरावर को डिढ करि गहै, सो संन्यासी उन्मन रहै ॥
जिहि धर चाल रची ब्रह्मंडा, पृथमों मारि करी नव खंडा ॥
अबिगत पुरिस की गति लखीन जाइ,दासकबीर अगह रहे ल्यो लाई।।
(1) ख० प्रति में इसके श्रागे यह रमणी है--
[ग्रंथ वावनी ]
बावन अाखिर लोकत्री सब कुछि इनहो मांहि ॥
ये सब पिरि पिरि जाहिगे, सो अाखिर इनमैं नाहि ॥
तुरक मुरी कत जानिये;हिंदू बेद पुरान ॥
मन समझन के कारने, कछू एक पढ़िये ज्ञान ॥
जहां बोट तहां अाखिर श्रावा, जहां अबोल तहाँ मन न लगावा
बोल अबोल मंमि है सोई, जे कुछि है ताहि लग्नै न कोई ॥
श्रो अंकार श्रादि मैं जाना, लिखि करि मेंटे ताहि न माना ।
श्रो ऊकार करै जस कोई, तस लिखि मरेणां न होई ॥
कका कवल किरणि मैं पावा, अरि ससि बिगास सेपट नहीं ावा ॥
अस जे जहां कुसम-रस पावा, तो अकह कहा कहि का समझावा ॥
खखा इहै खारि मनि श्रावा, खोरहिछाडि चहूं दिस धावा ॥
ख समहि जानि पिमा करि रहै, तो हो दून पेव अखै पद लहै ॥ ..
गगा गुर के बचन पिछाना, दूसर बात न धरिये काना ॥
सोई बिहगम कबहूं न जाई, अगम गहै गहि गगन रहाई ॥
घघा घटि घटि निमस सोई, घट फाटा घट कबहुं न होई ॥
ता घट मांहि घाट जो पावा, सुघटि छाढ़ि श्रीघट कत श्रावा ॥
नाना निरखि सनेह करि, निरवाले संदेह,
नाहीं देखि न भाजिये, प्रेम सयानप येह ॥
चचा चरित चित्र है भारी, तजि बिचित्र चेतह चितकारी ।।
चित्र विचित्र रहै औडेरा, तजि बिचित्र चित राखि चितेरा ॥
छछा इहै छत्रपति पासा, तिहिं छाक न रहै छाडि करि प्रासा ॥
रे मन तू छिन छिन समझाया, तहां छाडि कत श्राप वधाया ॥
जजा जे जाने तो दुरमति हारी, करि बासि काया गांव ।
रिण रोक्या भाजै नहीं, तो सूरण थारौ नाव ।।