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पदावली २१६

[राग सारंग]
  यहु ठग ठगत सकल जग डौलै,
गवन करै तब मुषह न बोलै ।। टेक ।।
तूं मेरौ पुरिषा हौं तेरी नारी,तुम्ह चलतैं पाथर थैं भारी ।।
बालपनां के मींत हमारं,हमहि छाडि कत चले हो निनारे ।
हम सूं प्रीति न करि री बौरी,तुम्हसे केते लागे ढौरी ॥
हम काहू संगि गये न आये,तुम्ह से गढ हम बहुत बसाये ।।
माटी की देही पवन सरीरा,ता ठग सूं जन डरै कबीरा ॥३६४

  धंनि सो घरी महूरत्य दिनां,
जब ग्रिह आये हरि के जनां ।। टेक ।।।
दरसन देखत यहु फल भया,नैंनां पटल दूरि है गया ।।
सब्द सुनत संसा सब छूटा,श्रवन कपाट बजर था तूटा ।।
परसत घाट फेरि करि घड़या,काया कर्म सकल झड़ि पड़या ।।
कहै कबीर संत भल भाया,सकल सिरोमनि घट मैं पाया ।।३६५।।

[राग मलार]
  जतन बिन मृगनि खेत उजारे ।
  टारे टरत नहीं निस बासुरि,बिडरत नहीं बिडारे ।। टेक ।।
अपनें अपनें रस के लोभी,करतब न्यारे न्यारे ।।
अति अभिमांन बदत नहीं काहू,बहुत लोग पचि हारे ।।
बुधि मेरी.किरपी,गुर मेरौ बिझुका,अखिर दोइ रखवारे ।
कहै कबीर अब खान न दैहूं,बरियां भली संभारे ।। ३६६ ।।

  हरि गुन सुमरि रे नर प्रांणी।
  जतन करत पतन है जैहै,भावै जांणम जांणीं ।। टेक ।
छीलर नीर रहै धूं कैसैं,को सुपिनैं सच पावै ।