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कबीर-ग्रंथावली

लाहै कारनि मूल गमावै,समझावत हूँ तोहि ।।
निस दिन तोहि क्यूं नींद परत है,चितवत नांही ताहि ।
जंम से बैरी सिर परि ठाढे,पर हथि कहा बिकाइ ॥
झूठे परपंच मैं कहा लागा,ऊठ नांहीं चालि ।
कहै कबीर कछु बिलम न कीजै,कौनैं देखी काल्हि ।। ३१२ ॥

भयौ रे मन पांहुनडौ दिन चारि ।
माजिक काल्हिक मांहि चलैगौ,ले किन हाथ सँवारि ॥टेक।
सौंज पराई जिनि अपणावै,ऐसी सुणि किन लेह ।
यहु संसार इसौ रे प्रांणो,जैंसा बूंवरि मेह ।।
तन धन जोबन अंजुरी कौ पांनी,जात न लागै बार ।
सैं बल के फूलन परि फूल्यौ,गरव्यौ कहा गँवार ।
खोटी खाटै खरा न लीया,कछू न जांनी साटि ।
कहै कबीर कछू बनिज न कीयो,आयौ थौ इहि हाटि ।।३१३।।

मन रे रांम नांमहि जांनि ।
बरहरी थुंनी परयौ मंदिर,सूतौ खुंटी तानि ॥ टेक ।।
सैंन तेरी कोंई न समझै,जीभ पकरी आंनि ।
पांच गज दोवटी मांगी,चुंन लीयौ सांनि ।।
बैसंदर षोषरी हांडी,चल्यौ लादि पलांनि ।
भाई बंध बोलाइ बहु रे,काज कीनौं आंनि ।
कहै कबीर या मैं झूठ नांहीं,छाडि जीय की बांनि ।
रांम नांम निसंक भजि रे,न करि कुल की कांनि ॥ ३१४ ॥

प्राणीं लाल औसर चल्यौ रे बजाइ ।
मुठी एक मठिया मुठि एक कठिया,संगि काहू कै न जाइ।।टेक॥
देहली लग तेरी मिहरी सगी रे,फलया लग सगी माइ ।
मड़हट लूं सब लोग कुटंबी,हंस अकेलौ जाइ ।।