( १६ ) नानक, दादू , शिवनारायण, जगजीवनदास आदि जितने प्रमुख संत हुए, सब ने कबीर का अनुकरण किया और अपना अपना अलग मत चलाया। इनके विषय की मुख्य बाते ऊपर आ गई हैं, फिर भी कुछ बातों पर ध्यान दिलाना आवश्यक है। सब ने नाम, शब्द, सद्गुरु आदि की महिमा गाई है और मूर्तिपूजा, अवतार-वाद तथा कर्मकांड का विरोध किया है; तथा जाति पाँति का भेद-भाव मिटाने का प्रयत्न किया है, परंतु हिंदू जीवन में व्याप्त सगुण भक्ति और कर्म- कांड के प्रभाव से इनके प्रवर्तित मतों के अनुयायियों द्वारा वे स्वय परमात्मा के अवतार माने जाने लगे हैं, और उनके मतों में भी कर्म- कांड का पाखंड घुस गया है। कई मतों में केवल द्विज लिए जाते हैं। केवल नानकदेवजी का चलाया सिक्ख संप्रदाय ही ऐमा है जिसमें जाति पाँति का भेद नहीं पाने पाया, परंतु उसमें भी कर्मकांड की प्रधानता हो गई है और ग्रंथ-साहब का प्रायः वैसा ही पूजन किया जाता है जैसा मूर्तिपूजक मूर्ति का करते हैं। कबोर- दास के मन गढंत चित्र बनाकर उनकी पूजा कबीरपंथी मठों में भी होने लग गई है और सुमरनी आदि का प्रचार हो गया है। ____ यद्यपि आगे चलकर निर्गुण संत मतों का वैष्णव संप्रदायों से बहुत भेद हो गया, तथापि इसमें संदेह नहीं कि संत धारा का उद्गम भी वैष्णव भक्ति रूपी स्रोत से ही हुआ है। श्रीरामानुज ने संवत् ११४४ में यादवाचल पर नारायण की मूर्ति स्थापित करकं दक्षिण में वैष्णव धर्म का प्रवाह चलाया था, पर उनकी भक्ति का प्राधार ज्ञानमार्गी अद्वैतवाद था, उनका अद्वैत विशिष्टाद्वैत हुआ। गुजरात में माधवाचार्य ने द्वैतमूलक वैष्णव धर्म का प्रवर्तन किया । जो कुछ कहा जा चुका है, उससे पता चलेगा कि संतधारा अधिक- तर ज्ञानमार्ग के ही मेल में रही। पर उधर बंगाल में महाप्रभु चैतन्य देव और उत्तर भारत में वल्लभाचार्यजी के प्रभाव से भक्ति के
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