( १५ ) कबीर इस निर्गुण भक्ति-प्रवाह के प्रवर्तक हैं, परंतु भक्त नाम- देव इनसे भी पहले हो गए थे ! नामदेव का नाम कबीर ने शुक, उद्धव, शंकर, आदि ज्ञानियों के साथ लिया है- जागे सुक उथव अकूर हणवंत जागे लै लँगूर । कर जागे चरन सेघ, कालि जागे नामां जैदैव ॥ अकर, हनुमान और जयदेव की गिनती ज्ञानियों ( जापता ) में कैसे हुई, यह नहीं कह सकते। नामदेवजी जाति के दर्जी थे और दक्षिण के सतारा जिले के नरसी बमनी नामक स्थान में उत्पन्न हुए थे। पंढरपुर में विठोबाजी का मंदिर है। ये उनके बड़े भक्त थे। पहले ये सगुणोपासक थे, परंतु आगे चलकर इनका झुकाव निर्गुण भक्ति की ओर हो गया, नैसा उनके गायनों के नीचे दिए उदाहरणों से पता चलेगा- (क) दारबराय नंद राजा मेरा रामचंद्र, अब नामा तस्व रस अमृत पीजै ।। धनि पनि मेवा रोमावली । धनि धनि कृष्ण ओढ़े कविली ।। धनि धनि र माता देवकी । निह घर रमैया कँवलापती ।। धनि धनि बन खंड दाबना । जहँ खेलै श्रीनारायना ।। बेनु बजावे, गोधन चारै । बामे का स्वामी श्रानंद करें। (ख ) पांडे तुम्हारी गायत्री लोधे का खेत खाती थी। लैकरि ठेंगा टॅगरी तोरी लंगत लंगत जाती थी ॥ पांडे तुम्हारा महादेव धौले बलद चढ़ा पावत देखा था। पांडे तुम्हारा रामचंद्र सो भी श्रावत देखा था । रावन सेंती सरबर होह घर की जोय गंवाई थी। कबीर के पीछे तो संतां की मानो बाढ़ सी आ गई और अनेक मत चल पडे। पर सब पर कबीर का प्रभाव स्पष्ट परिलक्षित है।
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