पृष्ठ:कबीर ग्रंथावली.djvu/२४५

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१६१
पदावली

सहजि सुषमनां कूल भरावै,दह दिसि बाड़ी पावै ॥
ल्यौकी लेज पवन का ढ़ींकू,मन मटका ज बनाया ।
सत की पाटि सुरति का चाठा,सहजि नीर मुकलाया ॥
त्रिकुटी चढ्यौ पाव ढौ ढारै,अरध उरध की क्यारी ।
चंद सूर दोऊ पांणति करिहैं,गुर मुषि बीज बिचारी ॥
भरी छाबड़ी मन बैकुंठा,सांईं सूर हिया रंगा।
कहै कबीर सुनहु रे संतौ,हरि हंम एकै संगा ॥ २१४ ।।

   रांम नांम रंग लागौ,कुरंग न होई ।
   हरि रंग सौ रंग और न कोई ॥ टेक ।।
और सबै रंग इहि रंग थैं छूटै,हरि-रंग लागा कदे न खूटै।
कहै कबीर मेरे रंग रांम राई,और पतंग रंग उड़ि जाई ।।२१५।।

   कबीरा प्रेम की कूल ढरै,हंमारै रांम बिनां न सरै। .
   बांधि लै धोरा सींचि लै क्यारी,ज्यूं तूं पेड भरै ।। टेक ।।
काया बाड़ी मांहैं माली,टहल करै दिन राती।
कबहूं न सोवै काज संवारे,पांणतिहारी माती ॥
संझै कूवा स्वांति अति सीतल,कबहूं कुबा वनहीं रे ।
भाग हंमारे हरि रखवाले,कोई उजाड़ नहीं रे ।।
गुर बीज जमाया कि रखि न पाया,मन की आपदा खोई ।
औरै स्यावढ करै षारिसा,सिला करै सब कोई ॥
जैा घरि आया तो सब ल्याया,सबही काज संवारसा। .
कहै कबीर सुनहु रे संतौ,थकित भया मैं हारया ॥ २१६ ॥

   राजा रांम बिनां तकती धो धो।
   रांम बिनां नर क्यूं छूटौगे,
जम करै नग धो धो धो । टेक ।।
११

११