पृष्ठ:कबीर ग्रंथावली.djvu/२४

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

      <ref></ref( १४ ) मुसलमानों में द्विजों और शूद्रों का भेद नहीं है। सधर्मी होने के कारण वे सब एक हैं, उनके व्यवसाय ने उनमें कोई भेद नहीं डाला है,न उनमें कोई छोटा है और न कोई बड़ा। अतएव इन ठुकराए हुए शूद्रों में से ही कुछ ऐसे महात्मा निकले जिन्होंने मनुष्यों की एकता को उद्घोषित करना चाहा। इस नवोत्थित भक्ति-तरंग में सम्मिलित होकर हिंदू समाज में प्रचलित इस भेदभाव के विरुद्ध भी अावाज उठाई गई। रामानंदजी ने सबके लिये भक्ति का मार्ग खोलकर उमको प्रोत्साहित किया। नामदेव दरजी,रैदास चमार, दादू धुनिया, कबीर जुलाहा आदि समान की नीची श्रेणी के ही थे परंतु उनका नाम आन तक प्रादर से लिया जाता है। ____ वर्ण-भेद से उत्पन्न उच्चता और नीचता को ही नहीं,वर्ग भेद से उत्पन्न उच्चता नीचता को भी दूर करने का इस निर्गुण भक्ति ने प्रकन किया। स्त्रियों का पद स्त्री होने के ही कारण नीचा न रह गया। पुरुषों के ही समान वे भी भक्ति की अधिकारिणी हुई। रामानंदजी के शिष्यों में से दो स्त्रियां थीं, एक पद्मावती और दूसरी सुरसरौ। आगे चलकर सहजोबाई और दयाबाई भी भक्त-संतों में से हुई। स्त्रियों की स्वतंत्रता के परम विरोधी, उनको घर की चारदीवारी के अंदर ही कैद रखने के कट्टर पक्षपाती तुलसीदास जी भी जो मीराबाई को 'राम विमुख तजिय कोटि बैरी सम जद्यपि परम सनेही' का उपदेश दे सके,वह निर्गुण भक्ति के ही अनिवार्य और अलक्ष्य प्रभाव के प्रसाद से समझना चाहिए। ज्ञानी संत ने स्त्री की जो निंदा की है, वह दूसरी ही दृष्टि से है। स्त्री से उनका अभिप्राय स्त्री-पुरुष के काम-वासना-पूर्ण संसर्ग से है। स्त्री की निंदा कबीर से बढ़कर कदाचित् ही किसी ने की हो, परंतु पति-पत्नी की भाँति न रहते हुए भी लोई का प्राजन्म उनके साथ रहना प्रसिद्ध है।