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कबीर-ग्रंथावली

तन खोजौ नर नां करौ बड़ाई,
जुगति बिना भगति किनि पाई ॥ टेक ॥
एक कहावत मुलां काजी,
रांम बिनां सब फोकटबाजी ॥
नव ग्रिह बांभण भणता रासी,
तिनहूं न काटी जम की पासी ॥
कहै कबीर यहु तन काचा,
सबद निरंजन रांम नांम साचा ॥ १४२ ।।

जाइ परौ हमरौ का करिहै,
आप करै आपै दुख भरिहै ।। टेक ॥
उझड़ जातां बाट बतावै,जौ न चलै तौ बहु दुख पावै ।।
अंधे कूप क दिया बताई,तरकि पड़ै पुनि हरि न पत्याई ।।
इंद्री स्वादि विषै रसि बहिहै,नरकि पड़ै पुंनि राम न कहिहै।
पंच सखी मिलि मतौ उपायौ,जम की पासी हंस बंधायौ ।।
कहै कबीर प्रतीति न आवै,पापंड कपट इहै जिय भावै ॥१४३।।

 ऐसे लोगनि सूं का कहिये।
 जे नर भये भगति थैं न्यारे,तिनथै सदा डराते रहिये ॥टेक।।
आपण देही चरवा पांनों,ताहि निदैं जिनि गंगा पांनी ॥
आपण बूडैं और कौं बोड़ैं,अगनि लगाइ मंदिर मैं सोवैं॥
आपण अंध और कूं कांनां,तिनकौ देखि कबीर डरांनां ॥१४४॥

 है हरि जन सूं जगत लरत है,
फुंनिगा कैसें गरड़ भषत हैं ॥ टेक ॥
अचिरज एक देखहु संसारा,
सुनहां खेदै कुंजर असवारा ।।