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पदावली

वार पार की खबरि न जांनी,फिरसौ सकल बन ऐसैं ।
यहु मन बोहि थके कऊत्रा ज्यूं,रह्यौ ठग्यौ सौ बैसें ।
तजि बांवै दांहिंणैं बिंकार,हरि पद दिढ करि गहिये।
कहै कबीर गूंगै गुड़ खाया,बूझै तौ का कहिये ॥ १३३ ॥

 चलौ बिचारी रहौ। सँभारी,कहता हूं ज पुकारी ।
 रांम नांम अंतर गति नांही,तौ जनम जुवा ज्यूं हारी ॥टेका
मूंड मुड़ाइ फूलि का बैठे,कांननि पहरि मंजूसा ।
बाहरि देह षेह लपटांनीं,भीतरि तौ घर मूमा ।
गालिब नगरी गांव बसाया हांम कांम अहंकारी।
घालि रसरिया जब जंम खैंचे,तब का पति रहै तुम्हारी ॥
छांड़ि कपूर गांठि विप बांध्यो,मूल हूवा न लाहा ।
मेरे रांम की अभै पद नगरी,कहै कबीर जुलाहा ॥ १३४ ॥.

 कौंन बिचारि करत हौ पूजा,
आतम रांम अवर नहीं दूजा ॥ टेक ॥
बिन प्रतीतैं पाती तोडै,ग्यांन बिनां देवलि सिर फोड़ै।
लुचरी लपसी आप संवारै,द्वारै ठाढा रांम पुकारै ।
पर-आत्म जौ तत बिचारै,कहि कबीर ताकै बलिहारै ॥ १३५ ॥

कहा भयौ तिलक गरैं जपमाला,
मरम न जांनैं मिलन गोपाला ॥ टेक ।
दिन प्रति पसु करै हरिहाई,
गरै काठ वाकी बांनि न जाई ॥
स्वांग सेत करणीं मनि काली,
कहा भयौ गलि माला घाली ।।