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कबीर-ग्रंथावली

 मैं गुलांम मोहि वेचि गुसांईं,
तन मन धन मेरा रांमजी कै तांईं ॥ टेक ॥
आनि कबीरा हाटि उतारा,
सोई गाहक सोई बेचनहारा ॥
बेचै रांम तौ राखै कौंन,
राखै रांम तौ बेचैं कौंन ।।
कहै कबीर मैं तन मन जारसा,
साहिब अपनां छिन न बिसारया ॥ ११३ ॥

 अब मोहि राम भरोसा तेरा,
और कौंन का करौं निहोरा ।। टेक ॥
जाकैं रांम सरीखा साहिब भाई,
सो क्यूं अनंत पुकारन जाई ।
जा सिरि तीनि लोक कौ भारा,
सो क्यूं न करै जन की प्रतिपारा ।।
कहै कबीर सेवौ बनवारी,
सींचौ पेड़ पीवैं सब डारी ॥ ११४ ।।

 जियरा मेरा फिरै रे उदास ।
 रांम बिन निकसि न जाई सास,अजहूँ कौंन आस ॥ टेक ॥ .
जहां जहां जांऊ रांम मिलावै न कोई,
कहै। संतो कैसें जीवन होई ।।
जरै सरीर यहु तन कोई न बुझावै,
अनल दहै निम नींद न आवै ॥
चंदन घसि घसि अंग लगांऊ',
रांम बिनां दारन दुख पाऊं॥