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कबीर-ग्रंथावली

अवधू गगन मंडल घर कीजै।
अमृत झरै सदा सुख उपजै,बंक नालि रस पीवै ॥टेक॥
मूल बांधि सर गगन समांनां,सुषमनं यों तन लागी ।
कांम क्रोध दोऊ भया पलीता,तहां जोगणीं जागी ।।
मनवां जाइ दरीबै बैठा,मगन भया रसि लागा।
कहै कबीर जिय संसा नांही,सबद अनाहद बागा ॥७७॥

कोई पीवै रे रस रांम नांम का,जो पीवै सो जेगी रे ।
संतौ सेवा करौ रांम की,और न दूजा भोगी रे ॥टेक॥
यहु रस तो सब फोका भया,ब्रह्म अगनि परजारी रे ।
ईश्वर गौरी पीवन लागे, राम तनी मतिवारी रे ।।
चंद सूर दाइ भाठी कीन्हीं,सुषमनि चिगवा लागी रे ।
अमृत कू पी सांचा पुरया, मेरी त्रिष्णां भागी रे ।।
यहु रस पीवै गूंगा गहिला,ताकी कोई न बूझै सार रे ।
कहै कबीर महा रस महँगा,कोई पीवैगा पीवणहार रे ।। ७१ ॥

अवधू मेरा मन मतिवारा।
उन्मनि चढ्या मगन रस पीवै,त्रिभवन भया उजियारा।।टेक॥
गुड़ करि ग्यांन ध्यान कर महुवा, भव भाठी करि भोरा ।
सुषमन नारी सहजि समांनीं,पीवै पीवनहारा ॥
दोइ पुड़ जोड़ि चिगाई भाठी,चुया महा रस भारी।
काम क्रोध दोइ किया अलीता,छूटि गई संमारी ।।
सुंनि मंडल मैं मंदला बाजै,तहाँ मेरा मन नाचै ।
गुर प्रसादि अमृत फल पाया,सहजि सुषमनां काछै ॥


(७१) ख०--चंद सूर दोइ किया पयाना ।
(७२) ख०--उनमति चढ्या महारस पीवै,
पूरा मिल्या तबै सुष उपनां ।