जल मैं कुंभ कुंभ मैं जल है,बाहरि भीतरि पांनीं ।
फूटा कुंभ जल जलहि समांनां,यहु तत कथौ गियानीं ॥
आदैं गगनां अंतै गगनां,मधे गगनां भाई।
कहै कबीर करम किस लागै,झूठी संक उपाई ॥४४॥
कौंन मरै कहु पंडित जनां,सो समझाइ कहौ हम सनां ॥टेक॥
माटी माटो रही समाइ,पवनैं पवन लिया सँगि लाइ ।।
कहै कबीर सुंनि पंडित गुंनी,रूप मूवा सब देखै दुनीं ॥ ४५ ॥
जे को मरै मरन है मींठा,
गुर प्रसादि जिनहीं मरि दीठा ॥ टेक ।।
मूवा करता मुई ज करनी,मुई नारि सुरति बहु धरनीं ।।
मूवा आपा मूवा मांन,परपंच लेइ मूवा अभिमांन ।।
रांम रमें रमि जे जन मूवा,कहै कबीर अबिनासी हूवा ।। ४६ ॥
जस तूं तस तोहि कोई न जांन,
लोग कहैं सब आंन ।। टेक ।।
चारि बेद चहुँ मत का बिचार,इहि भ्रंमि भूलि परयौ संसार ।।
सुरति सुमृति दोइ को बिसवास,बाझि परयौ सब आस पास ॥
ब्रह्मादिक सनकादिक सुर नर, मैं बपुरौ धूं का मैं का कर ॥
जिहि तुम्ह तारौ सोई पैं तिरई,कहै कबीर नांतर बाँध्यौ मरई।।४७॥
लोका तुम्ह ज कहत हौ नंद को नंदन,नंद कहौ धूं काकौ रे।
धरनि अकास दोऊ नहीं होते,तब यहु नंद कहां थौ रे ॥टेक।।
जामैं मरै न संकुटि आवै,नांव निरंजन जाकौ रे ।
अविनासी उपजै नहिं बिनसै,संत सुजस कहैं ताकौ रे ॥
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