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कबीर-ग्रंथावली

नहीं को ऊंचा नहीं को नींचा,
जाका प्यंड ताही का सींचा ॥
जे तूं बांभन बभनीं जाया,
ती अनि बाट ह काहे न पाया ।।
जे तूं तुरक तुरकनी जाया,
तौ भीतरि खतनां क्यूं न कराया ।
कहै कबीर मधिम नहीं कोई,
सो मधिम जा मुखि रांम न होई ॥ ४१ ॥

कथता बकता सुरता सोई,आप बिचारै सो ग्यांनी होई ॥टेक।।
जैसैं अगिन पवन का मेला,चंचल चपल बुधि का खेला।
नव दरवाजे दसूं दुवार,बूझि रे ग्यांनी ग्यांन बिचार ॥
देही माटी बोलै पवनां,बूझि रे ग्यांनी मूवा स कौनां ।
मुई सुरति बाद अहंकार,वह न मूवा जो बोलणहार ॥
जिस कारनि तटि तीरथि जांहीं,रतन पदारथ घट हीं मांहीं।
पढ़ि पढ़ि पंडित बेद बाषांणौ,भींतरि हूती बसत न जांणैं ॥
हूं न मूवा मेरी मुई बलाइ,सो न मुवा जो रह्या समाइ ।
कहै कबीर गुरु ब्रह्म दिखाया,मरता जाता नजरि न पाया॥४२॥

हम न मरैं मरिहै संसारा,हंम कूं मिल्या जियावनहा टेक।।
अब न मरौं मरनैं मन मांनां,तेई मूए जिनि रांम न जांनां ।।
साकत मरै संत जन जीवै,भरि भरि रांम रसांइन पीवै ।।
हरि मरिहैं तौ हमहूँ मरिहैं,हरि न मरै हंम काहे कूं मरिहैं ।
कहै कबीर मन मनहि मिलावा,अमर भये सुख सागर पावा॥४३॥

कौंन मरै कौंन जनमै आई,सरग नरक कौंनैं गति पाई ॥टेक॥
पंचतत अविगत थैं उतपनां,एकैं किया निवासा ।
बिछुरे तत फिरि सहजि समांनां,रेख रही नहीं आसा॥