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काल कौ अंग

दौं की दाधी लकड़ी,ठाढ़ी करे पुकार ।
मति बसि पड़ौं लुहार कै,जालै दूजी बार ॥ १० ॥
जो ऊग्या सो आंथवै,फूल्या सो कुमिलाइ ।
जो चिणियां सो ढहि पड़ें,जो आया सो जाइ ॥ ११ ॥
जो पहरसा सो फाटिसी,नांव धरया सो जाइ ।
कबीर सोई तत्त गहि,जो गुरि दिया बताइ ॥ १२ ॥
निधड़क बैठा रांम बिन,चेतनि करै पुकार ।
यहु तन जल का बुदबुदा,बिनसत नाहीं बार ।। १३ ॥
पांणीं केरा बुदबुदा,इसी हमारी जाति ।
एक दिनां छिप जांहिंगे,तारे ज्यूं परभाति ॥ १४ ॥
कबीर यहु जग कुछ नहीं,षिन षारा षिन मींठ ।
काल्हि जु बैठा माड़ियां,आज मसांणां दीठ ॥ १५ ॥
कबीर मंदिर आपणै,नित उठि करती आलि ।
मड़हट देष्यां डरपती,चौड़ै दीन्ही जालि ॥ १६ ॥
मंदिर माहि झबूकती,दीवा केसी जोति ।
हंस बटाऊ चलि गया,काढौ घर की छोति ॥ १७ ॥


पात पड़ंता यंं कहै,सुनि तरवर बणराइ ।
अब के बिछुड़े नां मिले,कहि दूर पडैंगें जाइ ॥ १४ ॥
( ६० ) इस के आगे ख० प्रति में यह दोहा है-
मेरा वीर लुहारिया,तू जिनि जालै मोहि ।
इक दिन ऐसा होइगा,हूं जालैांगी तोहि ॥ १६ ॥
( १४ ) ख०--एक दिनां नटि जाहिगे,ज्यूं तारा परभाति
इसके आगे ख० प्रति में यह दोहा है-
कबीर पंच पखेरुवा,राखे पोष लगाइ ।
एक जु माया पारधी,ले गयो सबै उड़ाइ ॥ २१॥
( ११ ) ख०--काल्हि जु दीठा मैंड़िया।
( १६ ) ख०--बैठो करतौं आलि ।