आजक काल्हिक निस हमैं,मारगि माल्हंतां ।।
काल सिचांणां नर चिड़ा,औझड़ औच्यंतां ॥ २ ॥
काल सिहाँणौं थौं खड़ा, जागि पियारे म्यंत ।
रांम सनेही बाहिरा,तू क्यूं सोवै नच्यंत ॥ ३॥
सब जग सूता नींद भरि,संत न आवै नींद ।
काल खड़ा सिर ऊपरैं,ज्यूं तोरणि पाया बींद ॥ ४ ॥
आज कहै हरि काल्हि भजौंगा,काल्हि कहै फिरि काल्हि
आज ही काल्हि करंतड़ां,औसर जासी चालि ॥ ५ ॥
कबीर पल की सुधि नहीं,करै काल्हि का साज ।
काल अच्यंता झड़पसी,ज्यूं तीतर कों बाज ॥ ६ ॥
कबीर टग टग चौघतां,पल पल गई बिहाइ ।
जीव जँजाल न छाड़ई,जम दिया दमांमां पाइ ॥ ७ ॥
मैं अकेला ए दोइ जणां,छेती नांही कांइ ।
जे जम आगैं ऊबरौं, तो जुरा पहूंती प्राइ ॥ ८॥
बारी बारी प्रापणीं,चले पियारे म्यंत ।
तेरी बारी रे जिया,नेडी आवै निंत ॥६॥
(४) ख०-निसह भरि।।
(७) इसके आगे ख० प्रति में यह दोहा है-
जुरा कूती जोबन ससा,काल अहेड़ी बार।
पलक बिनामैं पाकड़ै,गरव्यो कहा गँवार ॥ ८ ॥
(१) इसके आगे ख० प्रति में ये दोहे हैं-
मालन श्रावत देखि करि,कलियाँ करी पुकार ।
फूले फूले चुणि लिए,काल्हि हमारी बार ॥११॥
बाढ़ी आवत देखि करि,तरवर डोलन लाग ।
हंम कटे की कुछ नहीं,पंखेरू घर भाग ॥ १२॥
फांगुण पावत देखि करि,बन रूना मन मांहि ।
ऊँची डाली पात है,दिन दिन पीले थांहि ॥१३॥
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कबीर-ग्रंथावली