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कबीर-ग्रंथावली
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ज्यूं ज्यूं हरि गुण साँभलौं,त्यूं त्यूं लागै तीर । लागैं थैं भागा नहीं,साहणहार कबीर ।। ७ ।। सारा बहुत पुकारिया,पीड पुकारै और । लागी चोट सबद की,रह्या कबीरा ठौर ॥८॥६१८ ॥
(४१) जीवन मृतक को अंग
जीवत मृतक है रहै,तजै जगत की आस । तब हरि सेवा प्रापण करै,मति दुख पावै दास ॥ १ ।। कबीर मन मृतक भया,दुरबल भया सरीर । तब पैंड लागा हरि फिरै,कहत कबीर कबीर ।। २ ॥ कबीर मरि मड़हट रह्या,तब कोई न बूझै सार। हरि प्रादर आगै लिया,ज्यूं गउ बछ की लार ॥ ३ ॥ घर जालौं घर उबरै.घर राखौं घर जाइ । एक अचंभा देखिया,मड़ा काल की खाइ ।। ४ ।। मरतां मरतां जग मुवा,औसर मुवा न कोइ । कबीर ऐसैं मरि मुवा,ज्यूं बहुरि न मरनां होइ ॥ ५॥ बैद मुवा रोगी मुवा,मुषा सकल संसार । एक कबीरा ना मुवा,जिनि के राम अधार ॥ ६॥ मन मारया नमिता मुई,अहं गई सब छूटि । जोगी था सो रमि गया,आसणि रही विभूति ॥ ७ ॥ जीवन थैं मरिवौ भलौ,जौ मरि जानैं कोइ । मरनैं पहली जे मरें,तौ कलि अजरावर होइ ॥८॥ खरी कसौटी रांम का,खोंटा टिकै न कोइ । रांम कसौटी सो टिकै,जौ जीवत मृतक होइ ॥६॥
(१)ख०.प्रति में इस अंग में पहला दोहा यह है---- जिन पांऊं से कतरी,हांठत देस बदेस । निन पांऊ तिथि पाकड़ी,श्रागगा भया बदेस ॥१॥
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