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कबीर-ग्रंथावली

मेर नीसांणीं मीच की,कुसंगति ही काल ।
कबीर कहै रे प्रांणियां,बांणों ब्रह्म सँभाल ।। ५ ॥
माषी गुड़ मैं गडि रही,पंथ रही लपटाइ ।
ताली पीटै सिरि धुनैं,मीठैं बोई माइ ॥ ६ ॥
ऊँचै कुल क्या जनमियां,जे करणीं ऊँच न होइ ।
सोवन कलस सुरै भरया,साधूं निंद्या सोइ ॥ ७ ॥ ४६६ ।।

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(२६) संगति कौ अंग

देखा देखी पाकड़ै,जाइ अपरचै छूटि ।
बिरला कोई ठाहरै,सतगुर सांमीं मूठि ॥ १ ॥
देखा देखी भगति है,कदे न चढई रंग।
बिपति पड़यां यूं छाड़सी,ज्यूं कंचुली भवंग ॥ २ ॥
करिए तौ करि जांणिये,सारीषा सूं संग ।
लीर लीर लोई थई,तऊ न छाडै रंग ।। ३ ।।
यहु मन दीजै तास कौं,सुठि सेवग भल सोइ ।
सिर ऊपरि आरास है,तऊ न दूजा होइ ॥ ४ ॥
पांहण टांकि न तोलिए,हाडि न कीजै बेह ।
माया राता मांनवी,तिन सूं किसा सनेह ॥ ५ ॥
कबीर तासूं प्रीति करि,जो निरबाहै षोड़ि ।
बनिता बिबधि न राचिये,देषत लागै षोड़ि ।। ६ ।।
कबीर तन पं षी भया,जहाँ मन तहां उडि जाइ ।
जो जैसी संगति करै,सो तैसे फल खाइ ॥ ७ ॥


(५)इसके आगे ख० प्रति में यह दोहा है-
   कबीर केहनैं क्या बणैं,अणमिलता सौ संग ।
   दीपक कै भावै नहीं,जलि अलि परै पतंग ॥ ६ ॥
(२६-१)ख०-तऊ न न्यारा होइ ।