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कबीर-ग्रंथावली

माला पहरयां कुछ नहीं,गांठि हिरदा की खोइ ।
हरि चरनूं चित राखिये,तौ अमरापुर होइ ॥ ६ ॥
माला पहरयां कुछ नहीं,भगति न आई हाथि ।
माथौ मुंछ मुंडाइ करि,चल्या जगत कै साथि ॥ १० ॥
सांईं सेंती साँच चलि,औरां सूं सुध भाइ ।
भावै लंबे केस करि,भावै घुरड़ि मुड़ाइ ॥ ११ ॥
केसों कहा बिगाड़िया,जे मूंडै सौ बार ।
मन कौं काहे न मुंडिए,जामैं बिषै बिकार ।। १२ ॥
मन मैवासी मुंडि ले,केसौं मूंडै कांइ।
जे कुछ किया सु मन किया,केसौं कीया नांहि ।। १३ ।।
मूंड मुंडावत दिन गए,अजहूँ न मिलिया रांम ।
रांम नांम कहु क्या करै,जे मन के औरै कांम ॥ १४ ॥
स्वांग पहरि सोरहा भया,खाया पीया षूंदि ।
जिहि सेरी साधू नीकले,सो तौ मेल्ही मुंदि ।। १५ ।।
बैसनौं भया तौ का भया,बूझा नहीं बबेक ।
छापा तिलक बनाइ करि,दगध्या लोक अनेक ॥ १६ ॥
तन कौं जोगी सब करैं,मन कों बिरला कोइ।
सब सिधि सहजै पाइए,जे मन जोगी होइ ॥ १७ ॥
कबीर यहु तौ एक है,पड़दा दीया भेष ।
भरम करम सब दूरि करि,मबहीं मांहिं अलेष ॥ १८ ॥


( १ )ख० में इसके आगे यह दोहा है।

. माला पहरयां कुछ नहीं,बांह्मण भगत न जाण ।
  ब्यांह सरांधां कारटां,उभू वैसे ताणि ॥१२॥
( ११ )ख०--साधौं सौं सुध भाइ ।
( १५ )ख०--जिहि सेरी साधू नीसरै,सो सेरी मेल्ही मूंदि ॥