पृष्ठ:कबीर ग्रंथावली.djvu/११५

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सूषमा मारग कौ अंग

(१४) सूषिम मारग को अंग


कौण देस कहां आइया, कहु क्यू जाण्यां जाइ ।
उहु मार्ग पावै नहीं, भूलि पड़े इस मांहि ॥ १ ॥
उतीर्थ कोइ न प्रावई, जाकू बूझी धाइ ।
इतथै सबै पठाइये, भार लदाइ लदाइ ॥ २ ॥
सबकूं बूझत मैं फिरौं, रहण कहै नहीं कोइ।
प्रीति न जोड़ी राम सूं, रहण कहां थैं होइ॥३॥
चलौ चलौं सबको कहै, मोहि अँदेसा और।
साहिब सूं पर्चा नहीं, ए जांहिगे किस ठौर॥४॥
जाइबे की जागा नहीं, रहिबे को नहीं ठौर ।
कहै कबीरा संत है।, प्रबिगति की गति और ।। ५ ।।
कबीर मारिग कठिन है, कोई न सकई जाइ ।
गए ते बहुड़े नहीं, कुसल कहै को प्राइ ॥ ६ ॥
जन कबीर का सिषर घर, वाट सलैली सैल ।
पाव न टिकै पपीलका, लोगनि लादे बैल ।। ७ ॥
जहां न चींटी चढि सकै, राई ना ठहराइ ।
मन पवन का गमि नहीं, तहां पहूँचे जाइ ॥ ८ ॥
कबीर मारग अगम है, सब मुनिजन बैठे थाकि ।
तहां कबीरा चलि गया, गहि सतगुर की सापि ।। ६ ।।
सुर नर थाके मुनि जनां, जहां न कोई जाइ ।
मोटे भाग कबोर के, तहां रहे घर छाइ ॥ १० ॥ ३०२ ।।


(२) इसके आगे ख० में यह दोहा है-
कबीर संसा जीव मैं, कोइ न कहै समझाइ ।
नांना बाणी बोलता, सो कत गया बिलाइ ।। ३ ।।