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कबीर-ग्रंथावली
जांमण मरण बिचारि करि,कूड़े काम निवारि । जिनि पंथू तुझ चालणां,सोई पंथ सँवारि ।। १४॥ : बिन रखवाले बाहिरा,चिड़ियैं खाया खेत । प्राधा प्रधा ऊबरै,चेति सकै तौ चेति ।। १५ ।। हाड जलै ज्यूं लकड़ी,केस जलै ज्यूं घास । सब तन जलता देखि करि,भया कबीर उदास ।। १६ ।। कबीर मंदिर ढहि पड़या,सैंट भई सैवार । कोई चेजारा चिणि गया,मिल्या न दुजी बार ॥ १७ ॥ कबीर देवल ढहि पड़या,ईंट भई सैवार । करि चिजारा सौं प्रीतिड़ो,ज्यूं ढहै न दूजी बार ॥ १८ ॥ कबीर मंदिर लाष का,जड़िया हीरैं लालि । दिवस चारि का पेषणां,बिनस जाइगा काल्हि ।। १६ ॥ कबीर धूलि सकेलि करि,पुड़ो ज बांधी एह । दिवस चारि का पेषणां,अंति षेह की षेह ।। २० ।।
[१६, १७ नंबर के दोहे क प्रति में २२, २३ नंबर पर हैं]
प्राजि कि काल्हि कि पचे दिन जंगल होइगा बास । ऊपरि उपरि फिरहिंगे,ढोर चरंदे घास ॥ १८॥ मरहिंगे मरि जाहिंगे,नांव न लेगा कोइ। उजड़ जाइ बसाहिंगे,छाडि बसंती लोइ॥ १६ ॥ कबीर खेति किसांण का,म्रगौं खाया झाड़ि । खेत बिचारा क्या करे,जो खसम न करई बारे ॥ २० ॥
(१६) ख० में इसके आगे ये दोहे हैं-
मडा जलै लकड़ी जलै,जलै जलावणहार । कौतिगहारे भी जलैं,कासनि करौं पुकार ।। २३ ।। कबीर देवल हाड़ का,मारी तणा बधांण । खड हडतां पाया नहीं,देवल का सहनांण ॥ २४ ॥
(७) ख-देवल ढहि । (२०)ख-धूलि समेटि । </poem>