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कपालकुण्डला
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कपालकुण्डला आवश्यकीय कार्यादिसे निवृत्त हुई। घरके कामसे खाली हो, वह औषधि लानेके लिये घरसे निकल पड़ी। उस समय एक पहर रात बीत चुकी थी। चाँदनी रात थी। नवकुमार बाहरी कमरमें बैठे हुए थे। उन्होंने खिड़कीमें से देखा कि कपालकुएडला बाहर जा रही है। उन्होंने भी घरके बाहर हो मृण्मयी का हाथ पकड़ लिया। कपालकुण्डलाने पूछा—“क्या?”

नवकुमारने पूछा—“कहाँ जाती हो?” नवकुमारके स्वरमें तिरस्कारका लेशमात्र भी न था।

कपालकुण्डला बोली—“श्यामासुन्दरी अपने पतिको वशमें करनेके लिए एक जड़ी चाहती है, वही लेने जाती हूँ।”

नवकुमारने पूर्ववत् कोमल स्वरमें पूछा—“कल तो एक बार हो आई थी; फिर आज क्यों?”

क०—कल खोजकर पा न सकी। आज फिर खोजूँगी।

नवकुमारने कोमल स्वरमें ही कहा—“अच्छा, दिनमें जानेसे क्या काम न होगा?” नवकुमारका स्वर स्नेहपूर्ण था।

कपालकुएडलाने कहा—“लेकिन दिनकी ली गयी जड़ी फलती नहीं।”

नव०—तो तुम्हें खोजनेकी क्या जरूरत है? मुझे जड़ीका नाम बता दो, मैं खोजकर ला दूँगा।

क०—मैं पेड़ देखकर पहचान सकती हूँ, उसका नाम नहीं जानती और तुम्हारे तोड़नेसे भी उसका फल न होगा। औरतोंको बाल खोलकर तोड़ना पड़ता है। तुम परोपकारमें विघ्न न डालो।

कपालकुण्डलाने यह बात अप्रन्नतापूर्वक कही। नवकुमारने भी फिर आपत्ति न की। बोले—“चलो, मैं भी तुम्हारे साथ चलता हूँ।”