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तृतीय खण्ड
 

नव०—“तुम मुसलमान हो—परायी औरत हो—तुम्हारे साथ इस तरह बात करनेमें भी मुझे दोष है। अब तुम्हारे साथ मेरी मुलाकात न होगी।”

थोड़ी देर तक सन्नाटा रहा। लुत्फुन्निसाके हृदय में तूफान बह रहा था। वह पत्थरकी मूर्तिकी तरह अचल रही। नवकुमारका वस्त्र उसने छोड़ दिया, बोली—“जाओ।”

नवकुमार चले। जैसे ही वह दो-चार कदम बढ़े थे कि वायु द्वारा उखाड़ कर फेंकी गई लता की तरह लुत्फुन्निसा एकाएक उनके पैरोंपर आ गिरी। अपनी बाहुलतासे चरणोंको पकड़ बड़े ही कातर स्वरमें उसने कहा—“निर्दय! मैं तुम्हारे लिए आगराका शाही तख्त छोड़कर आई हूँ। तुम मेरा त्याग न करो।”

नवकुमार बोले—“तुम फिर आगरे लौट जाओ। मेरी आशा छोड़ दो।”

“इस जन्ममें नहीं।” तीरकी तरह उठकर खड़ी हो सदर्प लुत्फुन्निसाने कहा—“इस जन्ममें तुम्हारी आशा त्याग नहीं सकती।” मस्तक उन्नत और बहुत हल्की टेढ़ी गर्दन किये, अपने आयत नेत्र नवकुमार पर जमाये वह राजराज-मोहनी खड़ी रही। जो अदमनीय गर्व हृदयाग्निमें लग गया था, उसकी ज्योति फिर छिटकने लगी। जो अजेय मानसिक शक्ति भारत राज्य-शासन की कल्पना से भी डरी नहीं, वह शक्ति फिर उस प्रणय दुर्बल देहमें चौंक पड़ी। ललाट पर नसें फूलकर अपूर्व शोभा देने लगीं, ज्योतिर्मयी अाँखें समुद्र जलमें पड़नेवाली रविरश्मिकी तरह झलझला उठीं। नाक का अग्रभाग उत्तेजनासे काँपने लगा। लहरों पर नाचने वाली राजहंसी गतिरोध करने वाले को जैसे देखती है, दलितफण फणिनी जैसे फन उठाकर ताकती है, वैसे ही वह