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कपालकुण्डला
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लुत्फुन्निसा बोली—“नहीं, अभी न जाओ। थोड़ा और ठहरो। मुझे अपना वक्तव्य पूरा कर लेने दो।”

नवकुमारने थोड़ी देर और प्रतीक्षा की, लेकिन लुत्फुन्निसा चुप ही रही। थोड़ी देर बाद नवकुमारने फिर पूछा—“और तुम्हें क्या कहना है?” लुत्फुन्निसाने कोई जवाब न दिया। वह चुपचाप रो रही थी।

यह देख कर नवकुमार उठ कर खड़े हो गये; लुत्फुन्निसाने उनका वस्त्र पकड़ लिया। नवकुमारने कुछ विरक्त होकर कहा—“क्या कहती हो, कहो न?”

लुत्फुन्निसा बोली—“तुम क्या चाहते हो? क्या पृथ्वीकी कोई भी चीज तुम्हें न चाहिये? धन, सम्पद, मान, प्रणय, राग-रङ्ग, पृथ्वीमें जिन-जिन चीजोंको सुख कह सकते हैं, सब दूँगी, उसके बदलेमें कुछ भी नहीं चाहती; केवल तुम्हारी दासी होना चाहती हूँ। तुम्हारी धर्मपत्नी बननेका गौरव मुझे नहीं चाहिये, सिर्फ दासी बनना चाहती हूँ।”

नवकुमारने कहा—“मैं दरिद्र ब्राह्मण हूँ, इस जन्ममें दरिद्र ब्राह्मण ही रहूँगा। तुम्हारे दिये हुए धन-सम्पदको लेकर यवनी-जार बन नहीं सकता।”

यवनी-जार!—नवकुमार अबतक जान न सके, कि यही रमणी उनकी पत्नी है। लुत्फुन्निसा सर नीचा किये रह गयी। नवकुमारने उसके हाथसे अपना कपड़ा छुड़ा लिया। लुत्फुन्निसाने फिर उनका वस्त्र पकड़ कर कहा—“अच्छा, यह भी जाने दो। विधाताकी यदि ऐसी ही इच्छा है, तो सारी चित्तवृत्तिको अतल जलमें समाधि दे दूँगी। और कुछ नहीं चाहती; केवल जब इस राहसे हो कर जाना, दासी जानकर एक बार दर्शन दे दिया करना, केवल आँख ठण्डी कर लिया करूँगी।”