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अपने महलमें

“जनम अवधि हम रूप निहारलु नयन न तिरपित भयल।
सोई मधुर बोल क्षुतहोहि सुनन श्रुतिपथ परसन गयल।
कत मधुयामिनी रयसे गोंयाइनु न बुझनु कैछन न कयल।
लाख-लाख दुरा हिये-हिये रखिनु तबू हिया जुड़ायन गयल।
यत-यत रसिक जन रसे अनुगमन अनुयत काहू न पेख।
विद्यापति कहे प्राण जुड़ाइतें लाखे ना मिलल एक॥”

[१]

लुत्फुन्निसाने अपने महलमें पहुँच कर पेशमनको बुलाया और प्रसन्न हृदयसे अपनी पोशाक बदली। स्वर्णमुक्तादि खचित वस्त्र उतारकर पेशमन से कहा—“यह पोशाक तुम ले लो।”

सुनकर पेशमन कुछ विस्मयमें आई। पोशाक बहुत ही बेश-कीमती और हालहीमें तैयार हुई थी। बोली—“पोशाक मुझे क्यों देती हो! आज क्या खबर है?”

लुत्फुन्निसा बोली—“शुभ सम्वाद है।”

पे०—“यह तो मैं भी समझ रही हूँ। क्या मेहरुन्निसाका भय दूर हो गया?”

लु०—“दूर हो गया। अब उस बारेमें कोई चिन्ता नहीं है।”

पेशमनने खूब खुशी जाहिर कर कहा—“तो अब मैं वेगमकी दासी हुई?”

लु०—“तुम अगर बेगमकी दासी होना चाहती हो, तो मैं मेहरुन्निसासे सिफारिश कर दूँगी।”

पे०—“हैं यह क्या? आपने ही तो कहा कि मेहरुन्निसाके अब बादशाहकी बेगम होनेकी कोई सम्भावना नहीं है।”

  1. अनुवादक की भ्रान्ति। मूलमें है:

    जनम अवधि हम रूप निहारनु नयन न तिरपित भेल।
    सोई मधुर बोल श्रवणहि सुननु श्रुतिपथे परस न गेल॥
    कत मधुयामिनी रभसे गोंयाइनु न बुझनु कैछन केल।
    लाख-लाख युग हिये-हिये राखनु तबू हिया जुड़न न गेल॥
    यत-यत रसिक जन रसे अनुगमन अनुभव काहू न पेख।
    विद्यापति कहे प्राण जुड़ाइते लाखे ना मिलल एक॥
    विद्यापति।