विफल होनेके कारण राज्य-परिवारसे विरागवश हटनेका अवसर लिया चाहती है।
ऐसा सोचकर जहाँगीर दुःखी होकर चुप रहे। लुत्फुन्निसाने पूछा—“शाहंशाहकी क्या ऐसी मर्जी नहीं है?”
बाद०—“नहीं, मेरी गैरमर्जी नहीं है, लेकिन स्वामीके साथ फिर विवाह करनेकी क्या जरूरत है?”
लु०—“कालक्रमसे प्रथम विवाहमें स्वामीने पत्नी रूपमें ग्रहण किया। अभी जहाँपनाह दासीका त्याग न करेंगे?”
बादशाह मजाकमें हँसकर फिर गम्भीर हो गये।
बोले०—“दिलजान! कोई चीज ऐसी नहीं है, जो मैं तुम्हें न दे सकूँ अगर तुम्हारी ऐसी ही मर्जी है, तो वही करो। लेकिन मुझे त्यागकर क्यों जाती हो? क्या एक ही आसमानमें चाँद और सूरज दोनों नहीं रहते? एक डालीमें दो फूल नहीं खिलते?”
लुत्फुन्निसा आँखें फाड़कर बादशाहको देखती रही। बोली—“हुजूर! छोटे-छोटे फूल जरूर खिलते हैं, लेकिन एक तालमें दो कमल नहीं खिलते। हुजूरके शाही तख्तकी काँटा बनकर क्यों रहूँ?”
इसके बाद लुत्फुन्निसा अपने महलमें चली गयी। उसकी ऐसी इच्छा क्यों हुई, यह उसने जहाँगीरसे नहीं बताया। अनुभवसे जो कुछ समझा जा सकता था, जहाँगीर वही समझकर शान्त हो रहे। भीतरी वास्तविक तथ्य कुछ भी समझ न सके। लुत्फुन्निसाका हृदय पत्थर है। सलीमकी रमणी हृदयको जीतनेवाली राज्यकान्तिने भी कभी उसका मन मुग्ध न किया; लेकिन इस बार उस पाषाणमें भी कीड़ेने प्रवेश किया है।
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