बाद०—“दिल्लीके बादशाहको तुम्हारा गुलाम बना दिया है और फिर भी पुरस्कार चाहती हो!”
लुत्फुन्निसाने हँसकर कहा—“स्त्रियोंकी आकाँक्षा भारी होती है।”
बाद०—“अब और कौन-सी आकांक्षा है?”
लु०—“पहले शाही हुक्म हो कि बाँदीकी अर्जी कुबूल की जायगी।”
बाद०—“अगर हुकूमतमें खलल न पड़े।”
लु०—“एकके लिए दिल्लीश्वरके काममें खलल न पड़ेगा।”
बाद०—तो मंजूर है, बोलो कौन-सी बात है?”
लु०—“इच्छा है, एक शादी करूँगी।”
जहाँगीर ठहाका मारकर हँस पड़े; बोले—“है तो बड़ी भारी चाह। कहीं सगाई ठीक हुई है?”
लु०—“जी हाँ, हुई है। सिर्फ शाही फरमानकी देर है। बिना हुजूरकी इच्छाके कुछ भी न होगा।”
बाद०—“इसमें मेरे हुक्मकी क्या जरूरत है। किस भाग्यशालीको सुख-सागर में डुबोओगी?”
लु०—“दासीने दिलीश्वरकी सेवा की है, इसलिये द्विचारिणी नहीं है। दासी अपने स्वामीके साथ ही शादी करनेका विचार कर रही है।”
बाद०—“सही है, लेकिन इस पुराने नौकरकी क्या दशा होगी?”
लु०—“दिल्लीश्वरी मेहरुन्निसाको सौंप जाऊँगी।”
बाद०—“दिल्लीश्वरी मेहरुन्निसा कौन?”
लु०—“जो होगी।”
जहाँगीर मन-ही-मन समझ गये कि मेहरुन्निसा दिल्लीश्वरी होगी, ऐसा विश्वास लुत्फुन्निसाको हो गया है। अतएव अपनी इच्छा