पृष्ठ:कपालकुण्डला.djvu/५७

यह पृष्ठ प्रमाणित है।
कपालकुण्डला
५४
 

कपालकुण्डला ने पूछा—“गहना पा जानेसे तुम सन्तुष्ट हो जाओगे?”

भिक्षुक कुछ विस्मित हुआ। भिक्षुककी आशा असीमित होती है। और बोला—“क्यों नहीं, माँ।”

कपालकुण्डला ने अकपट हृदयसे कुल गहने, मय सन्दूकके भिखमंगेको दिए। शरीरके गहने भी उतारकर दे दिए।

भिक्षुक विह्वल हो गया। दास-दासी कोई भी जान न सका। भिक्षुक का विह्वल भाव क्षणभरका था। इधर-उधर देखकर एक साँससे एक तरफ भागा। कपालकुण्डलाने सोचा—“भिक्षुक भागा कयों?”

 


:५:

स्वदेशमें

शब्दाख्येयं यदपि किल ते यः सखीनां पुरस्तात्
कर्णे लीलं कथयितुमभू-द्दीननस्पर्श लोभात्।
—मेघदूत

[]

नवकुमार कपालकुण्डलाको लिये हुए स्वदेश पहुँचे, नवकुमार पितृहीन थे; घरमें विधवा माता थी और दो बहनें थीं। बड़ी विधवा थी, जिससे पाठक लोग परिचित न हो सकेंगे; दूसरी श्यामासुन्दरी सधवा होकर भी विधवा है, क्योंकि वह कुलीन की स्त्री है। वह दो-एक बार हम लोगोंको दर्शन देगी।

दूसरी अवस्थामें यदि नवकुमार इस तरह अज्ञातकुलशीला तपस्विनी को विवाह कर घर लाये होते, तो उनके आत्मीय-स्वजन कहाँ तक सन्तुष्ट होते, यह बताना कठिन है। किन्तु वास्तवमें उन्हें

  1. अनुवादक की भ्रान्ति। मूलमें है:

    शब्दाख्येयं यदपि किल ते यः सखीनां पुरस्तात्
    कर्णे लोलः कथयितुमभूदाननस्पर्शलोभात्।
    मेघदूत