पृष्ठ:कपालकुण्डला.djvu/५

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पूछा—“माझी! आज कितनी दूरतक राह तय कर सकोगे?” माझीने इधर-उधर बहकावा देकर उत्तर दिया—“कह नहीं सकते।”

वृद्ध नाराज होकर नाविकका तिरस्कार करने लगा। इसपर युवकने कहा—“महाशय! जो भगवान्‌के हाथकी बात है, उसे पण्डित-विद्वान् तो बता ही नहीं सकते, यह बेचारा मूर्ख कैसे बता सकता है, आप नाहक उद्विग्न न हों।”

वृद्धने उत्तेजित होकर जबाब दिया—“उद्विग्न न होऊँ! क्या कहते हो? पाजियोंने बीस-पचीस बीघे का धान काट लिया, बच्चोंको सालभर क्या खिलाऊँगा?”

यह खबर उन्होंने गङ्गासागर पहुँचनेपर पीछेसे आनेवाले यात्रियोंके मुँहसे सुनी थी। युवकने कहा—“मैंने तो पहले ही कहा था कि महाशयके घरपर दूसरा कोई देखभाल करनेवाला नहीं है....महाशयका आना अच्छा....उचित नहीं हुआ।”

वृद्धने पहलेकी तरह उत्तेजित स्वरमें कहा—“न आना? अरे, तीनपन तो चले गये! आखिरी अवस्था आ गयी! अब यदि परकाल के लिए कुछ न करूँ, तो कब करूँगा?”

युवकने कहा—“यदि शास्त्रका मर्म समझा जाय, तो तीर्थदर्शनसे परकालके लिए जो कर्म साधित होता है, घर बैठकर भी वह हो सकता है।”

वृद्धने कहा—“तो तुम आये क्यों?”

युवकने उत्तर दिया—“मैं तो पहले ही बता चुका हूँ कि समुद्र देखनेकी साध थी। इसीलिये आया हूँ मैं।” इसके बाद ही अपेक्षाकृत मधुर भावुक स्वरमें कहने लगा—“अहा! कैसा दृश्य देखा है, जन्म-जन्मान्तर इस दृश्यको भूल नहीं सकता!”