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कपालकुण्डला
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है। ऐसा होनेसे रूपवर्णनका शीघ्र ही अन्त हो जाता। दुर्भाग्यवश यह सर्वाङ्ग-सुन्दरी नहीं है, इसलिए निरस्त होना पड़ता है।

यह निर्दोष सुन्दरी नहीं है, यह कहने का प्रथम कारण यह है कि इसका शरीर मध्यम आकृतिकी अपेक्षा कुछ दीर्घ है। दूसरे अधरोष्ठ चिपटे हैं, तीसरे वास्तविक रूपमें यह गोरी भी नहीं है।

शरीर कुछ दीर्घ अवश्य है, लेकिन हाथ, पैर, हृदयादि सर्वाङ्ग सुडौल तथा निठोल हैं। वर्षाकालमें लता जैसे अपने पत्रादिकी बहुलताके कारण भरीपूरी और झलझलाती रहती है, वैसे ही इस कामिनीकी देह-लता भी पूर्णतासे झलझला रही है; अतएव शरीरके ईषद्दीर्घ होनेपर भी वह पूर्णताके कारण शोभाका ही कारण हो गया है, जिन्हें हम वास्तव में गौरांगी कहते हैं, उनमें किसीका रंग पूर्णचन्द्र कौमुदीकी तरह, किसीकी ईषदारक्त ऊषा जैसा होता है। इस रमणीका वर्ण इन दो में कोई भी नहीं, अतः इसे प्रकृत गौरांगी न कहे जानेपर भी इसका वर्ण मनोमुग्धकर अवश्य है। जो हो, यह श्यामवर्णा है। ‘श्यामा’ या ‘श्यामवर्ण कृष्ण’ का जो रंग वर्णित है, यह वह रंग नहीं है। तप्तकाञ्चनविशिष्ट श्यामवर्ण है। यह पूर्णचन्द्रकरलेखा या हेमाम्बुदकिरीटिनी ऊषा यदि गौरांगियोंकी प्रतिमा है, तो वसन्तजनित नवआम्रमञ्जरीकी शोभा इन श्यामांगियोंकी भी है। पाठकों में अनेक गौरांग वर्णकी प्रतिष्ठा करते होंगे, लेकिन यदि कोई श्याम की मायासे मुग्ध है, तो उसे हम वर्णज्ञान शून्य नहीं कह सकते। इस बातसे जिन्हें विरक्ति पैदा होती हो, वह कृपा करके एकबार नवमञ्जरीविहारी भ्रमरश्रेणीकी तरह इस उज्ज्वल श्यामललाट विलम्बीकी याद करें, उस सप्तमी चन्द्राकृति ललाटके नीचेकी वक्र भृकुटिकी याद करें, उन पके हुए आम्रपुष्पके रंगवाले कपोलोंको याद करें, उसके बीच पक्व बिम्बाधर ओष्ठोंकी याद करें, तो इस अपरिचिता रमणीको