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कपालकुण्डला
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सम्भव हो सका, वहाँतक यथाशास्त्र कार्य हुआ। गोधूलिलग्नमें नवकुमारके साथ कापालिक पालित संन्यासिनीका विवाह हो गया।

कापालिकको कोई खबर नहीं लगी। दूसरे दिन सबेरे तीनों जन यात्राका उद्योग करनेमें लगे। अधिकारी उन्हें मेदिनीपुरकी राह पर छोड़ आयेंगी।

यात्राके समय कपालकुण्डला कालिका देवीकी प्रणामके लिये गयी। भक्तिभावसे प्रणाम कर पुष्पपात्रसे एक अभिन्न विल्वपत्र उठाकर कपालकुण्डलाने देवीके चरणोंपर चढ़ा दिया और ध्यानपूर्वक उसे देखती रही। लेकिन वह बिल्वपत्र गिर गया।

कपालकुण्डला बड़ी ही भक्तिपरायण है। बिल्वपत्रको दैवप्रतिमा चरणसे च्युत होते देखकर बहुत डरी। उसने यह हाल अधिकारीसे भी कहा। अधिकारी भी दुखी हुई। बोली—“अब दूसरा कोई चारा नहीं है। अब पति ही तुम्हारा धर्म है। पति यदि श्मशानमें भी जाये, तो तुम्हें साथ ही जाना होगा। अतएव निःशब्द होकर चलो

सब लोग चुपचाप चले। बहुत दिन चढ़े, वह लोग मेदिनीपुरकी राहमें पहुँचे। वहाँतक पहुँचाकर अधिकारी बिदा हुई। कपालकुण्डला रोने लगी। पृथ्वीमें जो कपालकुण्डलाको सबसे ज्यादा प्रिय था, वह विदा हो रहा था, उससे अब मुलाकात नहीं होनेकी थी।

अधिकारी भी रोने लगीं। आखोंका आँसू पोछकर कपालकुंडलासे धीरेसे कहा—“बेटी, तू तो जानती है, भगवतीकी कृपासे मुझे पैसोंकी कमी नहीं है। हिलजीका प्रत्येक व्यक्ति पूजा करता है। तेरी धोतीके किनारे मैंने जो बाँध दिया है, उसे स्वीकार कर अपने पतिको देकर कहना पालकी आदि का प्रबन्ध