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प्रथम खण्ड
 

उसे प्रतिमाके पैरोंपर संस्थापित कर उसकी तरफ देखती रही। थोड़ी देर बाद अधिकारीने कपालकुण्डलाकी तरफ देखकर कहा—“बेटी! देखो, माताने अर्घ्य ग्रहण कर लिया। बिल्वपत्र गिरा नहीं। जिस मनौतीसे मैंने अर्घ्य चढ़ाया था, उसमें अवश्य मंगल है। तुम इस पथिकके साथ निःसंकोच यात्रा करो। लेकिन मैं विषयी लोगोंका चरित्र जानती हूँ। तुम यदि इसकी गलग्रह होकर जाओगी, तो यह व्यक्ति अपरिचित युवतीको साथ लेकर लोकालयमें जानेमें लज्जित होगा; तुमसे भी लोग घृणा करेंगे। तुम कहती हो कि यह व्यक्ति ब्राह्मण सन्तान है। इसके गलेमें यज्ञोपवीत भी दिखाई पड़ता है। यह यदि तुम्हें विवाह करके ले जाये तो मंगल है। अन्यथा मैं भी तुम्हें इसके साथ जाने देनेको कह नहीं सकती।”

“वि....वा....ह!” यह शब्द बड़े ही धीमे स्वरमें कपालकुण्डलाने कहा। कहने लगी,—“विवाहका नाम तो तुम लोगोंके मुँहसे सुना करती हूँ; किन्तु विवाह किसे कहते हैं, मैं नहीं जानती। क्या करना होगा।”

अधिकारीने मुस्कराकर कहा—“विवाह ही स्त्रियोंके लिये धर्मका एकमात्र सोपान है; इसीलिए स्त्रीको सहधर्मिणी कहते हैं। जगन्माता भी भगवान् शिवकी विवाहिता हैं।”

अधिकारीने सोचा कि सब समझा दिया; कपालकुण्डलाने मनमें समझा कि सब समझ लिया। बोली—“तो ऐसा ही हो। किन्तु उन्हें त्यागकर जानेका मेरा मन नहीं करता है। उन्होंने (कापालिक) इतने दिनों तक मेरा प्रतिपालन किया है।”

अधि०—“किस लिए इतने दिनोंतक प्रतिपालन किया, यह तुम नहीं जानती। तुम नहीं जानती कि बिना स्त्रीका सतीत्व नाश किये तांत्रिक क्रिया सिद्ध नहीं होती। मैंने तन्त्रशास्त्र पढ़ा है।