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प्रथम खण्ड
 

कराघात करनेपर भीतरसे एक व्यक्तिने कहा,—“कौन? कपालकुण्डला है, क्या?” कपालकुण्डला बोली,—“दरवाजा खोलो?”

उत्तरकारीने आकर दरवाजा खोला। जिस व्यक्तिने आकर दरवाजा खोला, वह देवालयकी पुजारिन या अधिष्ठात्री थी। उसकी उम्र कोई ५० वर्षके लगभग होगी। कपालकुण्डलाने अपने हाथों द्वारा उस वृद्धाकी गंजी खोपड़ी अपने पास खींचकर कानमें अपने साथीके बारेमें कुछ कह दिया।

वह पुजारिन बहुत देरतक हथेलीपर गाल रखे चिन्ता करती रही। अन्तमें उसने कहा—“बात सहज नहीं है। महापुरुष यदि चाहे तो सब कुछ कर सकता है। फिर भी, माताकी कृपासे तुम्हारा अमंगल न होगा। वह व्यक्ति कहाँ है?”

कपालकुण्डलाने ‘आओ’ कहकर नवकुमारको बुलाया। नवकुमार आड़में खड़े थे, बुलाये जानेपर घरके अन्दर आये। अधिकारीने उनसे कहा—“आज यहीं छिप रहो, कल सबेरे तुम्हें मेदिनीपुरकी राहपर छोड़ आऊँगी।”

क्रमशः बात-ही-बातमें मालूम हुआ कि अबतक नवकुमारने कुछ खाया नहीं है। अधिकारी द्वारा भोजनका आयोजन करनेपर नवकुमारने इनकार कर कहा कि केवल विश्राम की आवश्यकता है। अधिकारीने अपने रसोईघर में नवकुमारके सोनेका इन्तजाम कर दिया। नवकुमारके सोनेका उद्योग करनेपर कपालकुण्डला समुद्रतटपर पुनः लौट जानेका उपक्रम करने लगी। इसपर अधिकारीने कपालकुण्डलाके प्रति स्नेह दृष्टिपातकर कहा—“न जाओ, थोड़ा ठहरो, एक भिक्षा है।”

कपालकुण्डला—“क्या?”