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कपालकुण्डला
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कुमारने देखा कि कापालिक कुटीमें निःशब्द बैठा हुआ है। नवकुमारने पहले स्वागत जिज्ञासा की, लेकिन कापालिकने इसका कोई उत्तर न दिया।

नवकुमारने पूछा—“अबतक प्रभुके दर्शनसे मैं क्यों वञ्चित रहा?” कापालिकने उत्तर दिया—“अपने व्रतमें नियुक्त था।”

नवकुमारने घर लौटनेकी इच्छा प्रगट की। उन्होंने कहा—“न तो मैं राह ही पहचानता हूँ और न मेरे पास राह खर्च ही है। प्रभुके दर्शनसे यद्विहित-विधान हो सकेगा, इसी आशामें हूँ।”

कापालिकने इतना ही कहा—“मेरे साथ आओ।” यह कहकर वह उदास हृदयसे उठ खड़ा हुआ। घर लौटनेसे सुभीता हो सकेगा, आशासे नवकुमार भी साथ हो लिए।

उस समयतक भी संध्याका पूरा अन्धकार फैला न था, हलकी रोशनी थी एकाएक नवकुमारकी पीठपर किसी कोमल हाथका स्पर्श हुआ। उन्होंने पलटकर जो देखा, उससे वह अवाक् हो रहे। वही अगुल्फलम्बित निविड़ केशराशिधारिणी वन्यदेवीकी मूर्ति सामने थी। एकाएक कहाँसे यह मूर्ति उनके पीछे आ गयी? नवकुमारने देखा कि रमणी मुँहपर उँगली रखकर इशारा कर रही है। वह समझ गये कि रमणी बात करनेको मना कर रही है। निषेधका अधिक प्रयोजन भी न था। नवकुमार क्या कहते? वह आश्चर्यसे खड़े रह गये। कापालिक यह सब कुछ देख नह सका था। वह क्रमशः आगे बढ़ता ही गया। उसके श्रवणारीं परिधिके बाहर चले जानेपर रमणीने धीमे स्वरमें कुछ कहा। नवकुमारके कानोंमें उन शब्दोंने प्रवेश किया। यह शब्द थे—“कहाँ! जाते हो? न जाओ। लौटो–भागो।"