वसन्तकालकी मन्द वायुसे चालित शुभ्र मेघकी तरह वह धीरे-धीरे अलक्ष्य पादविक्षेपसे चली। नवकुमार मशीनकी पुतली की तरह साथ चले। राहमें एक छोटा-सा वन घूमकर जाना पड़ा। वनकी आड़में जानेपर फिर सुन्दरी दिखाई न दी। वन का चक्कर लगा लेनेपर नवकुमारने देखा कि सामने ही वह कुटी है।
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कापालिकके साथ
“कथं निगडसंयतासि द्रुतम् नयामि भवतीमितः”
—रत्नावली।
नवकुमार कुटीमें प्रवेश कर दरवाजा बन्द करते हुए अपनी हथेलीपर सर झुकाकर बैठ रहे। बहुत देर बैठे रहे; शीघ्र माथा न उठाया।
“यह कौन थी, देवी या मानुषी या कापालिककी मायामात्र?” नवकुमार निस्पन्द अवस्थामें हृदयमें ऐसे ही विचार करते बैठे रहे। वह कुछ भी समझ न सके।
वह अन्यमनस्क थे, इसलिये एक विशेष बात लक्ष्य कर न सके। उस कुटीमें उनके आनेसे पूर्व ही एक लकड़ी जल रही थी। इसके बाद काफी रात बीतनेपर उन्हें ख्याल हुआ कि अभीतक