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प्रथम खण्ड
 

इस तरहके जंगलका परिभ्रमण किया है, वे जानते हैं कि ऐसे जंगलमें थोड़ा घुसते ही लोग राह भूल जाते हैं। वही हाल नव-कुमारका भी हुआ। थोड़ी दूर जाते ही उन्हें इस बातका ध्यान न रहा कि उस कुटीको वह किस दिशामें छोड़ गये हैं। गम्भीर समुद्रका गर्जन उन्हें सुनाई पड़ा। वह समझ गये कि निकट ही समुद्र है। इसके बाद ही वे उस जंगलसे बाहर हुए और सामने ही विशाल समुद्र दिखाई दिया। अनन्त विस्तृत नीलाम्बुमण्डल सामने देखकर नवकुमारको अपार आनन्द प्राप्त हुआ। सिकता-मय तटपर जाकर वह बैठ गये। सामने फेनिल, नील अनन्त समुद्र था। दोनों पार्श्वमें जितनी दूर दृष्टि जाती है, उतनी ही दूर तक तरंग, भङ्ग, प्रक्षिप्त फेनकी रेखा, स्तूपीकृत विमल कुसुम-दामग्रथित मालाकी तरह बह धवल फेन-रेखा हेमकान्त सैकतपर न्यस्त हो रही है। काननकुण्डला धरणीके उपयुक्त अलकाभरण नील जलमण्डलके बीच सहस्रों स्थानों में भी फेन रहित तरङ्ग भङ्ग हो रहा था। यदि कभी इतना प्रचण्ड वायुवहन संभव हो कि उसके वेगसे नक्षत्रमाला हजारों स्थानों से स्थानच्युत होकर नीलाम्बरमें आन्दोलित होता रहे, तभी उस सागर तरङ्गकी विक्षिप्तताका स्वरूप दिखाई पड़ सकता है। इस समय अस्तगामी सूर्यकी मृदुल किरणोंमें नीले जलका एकांश द्रवीभूत सुवर्णकी तरह झलझला रहा था। बहुत दूरपर किसी यूरोपीय व्यापारी का जहाज सफेद डैने फैलाकर किसी बृहत् पक्षीकी तरह सागर-वक्षपर दौड़ा जा रहा था।

नवकुमारको उस समय इतना ज्ञान न था कि वह समुद्रके किनारे बैठकर कितनी देर तक सागर-सौन्दर्य निरखते रह गये। इसके बाद ही एकाएक प्रदोष कालका हलका अंधेरा सागरवक्ष