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प्रथम खण्ड
 


गर्जन और अन्य पशु-पक्षियोंका भीषण रव सुनाई पड़ जाता था। फिर भी उसी भीषण अन्धकार और सन्नाटेमें नवकुमार इधर-उधर घूम रहे थे। कभी नदीके चारों तरफ घूमते, कभी उपत्यकामें, कभी अधित्यकामें और कभी स्तूपके शिखरपर चले जाते थे। मनकी चंचलता उन्हें एक जगह स्थिर नहीं रहने देती थी। इस तरह घूमते हुए हर पदपर हिंस्र पशुका भय था, लेकिन वही डर तो एक जगह खड़े रहनेपर भी था।

इस तरह घूमते-घूमते नवकुमार थक गये। दिन भरके थके थे; अतः और भी शीघ्र अवसन्नता आयी। अन्तमें एक जगह बालियाड़ीके सहारे पीठपर ढासन लेकर बैठ गए। घरकी सुख-शय्या याद आ गयी।

जब शारीरिक और मानसिक चिन्ताएँ एक साथ आ जाती हैं और अस्थिर कर देती हैं, तो उस समय कभी-कभी नींद भी आ जाती है। नवकुमार चिन्तामग्न अवस्थामें निद्रित होने लगे। मालूम होता है, यदि प्रकृतिने ऐसा नियम न बनाया होता, तो मारे चिन्ताके आदमीकी मौत हो जाती।