आदेश दिया कि कपालकुंडलाको स्नान करा लावें। नवकुमार कपालकुंडलाको हाथ पकड़े रेत पार कर स्नान कराने चले। उनके पदभारसे हड्डियाँ टूटने लगीं। नवकुमारके पदाघातसे श्मशानका एक कलश भी टूट गया, उसके पास ही एक शव पड़ा हुआ था—हतभागेका किसीने संस्कार तक न किया था। दोनोंके ही पदसे उसका स्पर्श हुआ। कपालकुंडला उसे बचाकर निकल गयी, लेकिन नवकुमार उसे पददलित कर गये। शवभक्षक पशु चारों तरफ घूम रहे थे। दोनों जनको वहाँ उपस्थित देख वे सब चिल्ला उठे। कोई आक्रमण करने आया, तो कोई भाग गया। कपालकुंडलाने देखा कि नवकुमारका हाँथ काँप रहा है। कपालकुंडला स्वयं निर्भय निष्कम्प थी।
कपालकुंडलाने पूछा—“स्वामिन्! क्या डर लगता है?”
नवकुमारका मदिरामोह क्रमशः क्षीण होता जा रहा था। गम्भीर स्वरसे नवकुमारने कहा—“भयसे, मृण्मयी! नहीं!”
कपालकुंडलाने फिर पूछा—“तब काँपते क्यों हो?”
यह प्रश्न कपालकुंडलाने जिस स्वरसे किया, यह केवल रमणी हृदयसे ही सम्भव था। जब रमणी परदुःखकातर होती है, तभी ऐसा स्वर निकलता है। कौन जानता था कि साक्षात् श्मशानमें ऐसी आवाज कपालकुंडलाके मुँह से निकलेगी।
नवकुमारने कहा—“भयसे नहीं। रो नहीं पाता हूँ, क्रोधसे काँपता हूँ।”
कृपालकुंडलाने पूछा—“रोओगे क्यों?”
फिर वही कंठ!
नवकुमार बोले—“क्यों रोऊँगा? तुम क्या समझोगी, मृण्मयी तुम तो कभी सौन्दर्य देखकर उन्मत हुई नहीं।”—कहते-कहते यातनासे नवकुमारका गला भर गया। “तुम तो कभी अपना कलेजा स्वयं काटनेके लिये श्मशान आई नहीं, मृण्मयी!” यह कहते-कहते सहसा नवकुमार पुक्का फाड़कर रोते हुए कपालकुंडलाके चरणों पर गिर पड़े।