उस भैरवीकी विकराल मूर्तिको देखा था, उधर देखा। देखा, रणरंगिणी खिलखिला कर हँस रही है। कपालकुंडला अदृष्टविमूढ़की तरह कापालिकका अनुसरण करती चली। नवकुमार उसी तरह उसे पकड़े हुए साथ ले चले।
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प्रेत भूमिमें
“वपुषा करणोज्झितेन सा निपतन्ती पतिमप्यपातयत्।
ननु तैलनिषेकविन्दुना सह दीप्तार्जिरुपैति मेदिनीम्॥”
—रघुवंश
चन्द्र अस्त हुए। विश्वमंडलपर अन्धकारका पर्दा पड़ गया। कापालिकने जहाँ अपना पूजास्थान बनाया था, वहीं कपालकुडलाको वह ले गया। गङ्गा तट पर वह एक वृहत् बालूकी भूमि है। उसके सामने ही एक ओर बहुत बड़ी रेतीली भूमि है। वही श्मशान है। दोनों रेतीली भूमियोंके बीच जल बढ़नेके समय पानी रहता है। भाटेके समय नहीं रहता—इस समय भी नहीं है। श्मशानभूमिका जो हिस्सा गङ्गातट पर जाता है, वह किनारेपर जाकर बहुत ऊँचा हो गया है, उसके नीचे अगाध जल है। अविरल वायुप्रवाहके कारण किनारा कभी-कभी खिसक कर गङ्गामें गिरा करता है। पूजाके स्थानमें दीपक न था—केवल जलती लकड़ीसे प्रकाश था—ऐसा प्रकाश जो उसकी भयानकताको बढ़ा रहा था। पासमें ही पूजा, होम, बलिका सारा सामान मौजूद था। विशाल नदीका हृदय अन्धकारसे पूर्ण था। चैत्र मासकी वायु गङ्गाको विक्षुब्ध बनाये हुई थी। इस कारण कलकल नाद दिक्मंडलमें व्याप्त हो रहा था। शमशानके शवभक्षक पशु रह-रहकर चिल्ला पड़ते थे।
कापालिकने नवकुमार और कपालकुंडलाको उपयुक्त स्थानपर बैठाया और स्वयं पूजामें लग गया। उससमय उसने नवकुमारको