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चौथा खण्ड
 

मदिरा नवकुमारके माथेपर पहुँचकर उनके प्रकृत स्वभावको बदलने लगी। उसने स्नेहांकुर तकको उखाड़ फेंका।

कपालकुण्डला लुत्फुन्निसासे बिदा होकर घरकी तरफ चली। नवकुमार और कापालिक ने लुत्फुन्निसासे छिपकर कपालकुण्डलाका अनुसरण किया।

 

:८:

घर की तरफ

कपालकुण्डला धीरे-धीरे घर की तरफ चली। बहुत ही धीरे मृदु-पादविक्षेपसे। इसका कारण यह था कि वह बहुत ही गहरी चिन्तामें डूबी हुई थी। लुत्फुन्निसाकी दी हुई खबरसे कपालकुण्डलाका चित्त बिल्कुल परिवर्तित हो गया था। वह अपने आत्म-विसर्जनके लिये तैयार हुई। आत्म-विसर्जन किसलिये? क्या लुत्फुन्निसाके लिये? यह बात नहीं।

कपालकुण्डला अन्तःकरण से तान्त्रिक की सन्तान है। जिस प्रकार तान्त्रिक भवानीके प्रसादके रूपमें दूसरेकी जान लेनेका आकांक्षी हैं, वैसे ही वह भी उसी आकांक्षासे आत्म-विसर्जनके लिये तैयार है। कापालिककी वजहसे कपालकुंडला केवल शक्तिप्रार्थिनी है, यह बात नहीं, बल्कि असली कारण यह है कि संगति प्रभावके कारण देवीकी श्रद्धाभक्तिमें मनसे अनुरागिनी है। वह मजेमें समझ चुकी है कि सृष्टिशासनकर्त्री और मुक्तिदात्री एकमात्र भैरवी ही हैं। यह सही है कि भैरवीपूजामें नरबलिके रक्तसे प्राङ्गण भर उठता है, यह उसका परदुःखकातर हृदय सहनेमें असमर्थ है, किन्तु और किसी कार्यमें उसकी भक्तिभावना कुंठित नहीं है। उन्हीं जगतशासनकर्त्री, सुख-दुःख-विधायिनी और मोक्षदायिनी भगवतीने स्वप्नमें उसे आत्मविसर्जनका आदेश दिया है। फिर कपालकुण्डला क्यों न उस आज्ञाको माने?