नवकुमारने कहा—“अब मुझे तुम से कोई डर नहीं, आओ।”
यह कहकर नवकुमार कापालिकको लेकर अन्दर गये और एक आसनपर उसे बिठाकर तथा स्वयं बैठते हुए बोले—“कहो!”
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पुनर्वार्ता
“तद्गच्छ सिद्धं कुरु देवकार्यम्।”
—कुमारसंभव
कापालिक ने आसन ग्रहण कर अपनी दोनों बाहें नवकुमारको दिखाई। नवकुमार ने देखा कि दोनों हाथ टूटे हुए थे।
पाठकोंकी याद रह सकता है कि जिस रात कपालकुण्डला के साथ नवकुमार कापालिक-आश्रमसे भागे, उसी रात खोजने में व्यस्त बालियाड़ीके शिखरसे गिरा था। गिरनेके समय उसने शरीर-रक्षाके लिए दोनों हाथोंसे सहारा लिया। इससे उसका शरीर तो बचा, लेकिन दोनों हाथ टूट गये। सारा हाल कहकर कृपालिक ने कहा—“इन हाथों द्वारा यद्यपि दैनिक कार्य हो जाते हैं, किन्तु, इनमें अब बल नहीं है, यहाँतक कि मैं लकड़ी भी उठा नहीं सकता।”
इसके बाद बोला—“गिरते ही मैं जान गया कि मेरे दोनों हाथ टूट गये, लेकिन बादमें मैं बेहोश हो गया। पहले बेहोश और इसके बाद धीरे-धीरे जब मुझे ज्ञान हुआ तो मैं नहीं जानता था कि इस तरह मुझे कितने दिन बीते। शायद दो रातें और एक दिन था। सबेरेके समय मैं फिर पूरी तरह होशमें आया। इससे ठीक पहले मैंने स्वप्न देखा—मानो भवानी—यह कहते-कहते