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चौथा खण्ड
 


शब्द समुद्रनादवत् जान पड़ा। नवकुमारने और गौरसे देखा—वही पूर्वपरिचित—कापालिक।

नवकुमार चौंक उठे। लेकिन डरे नहीं। सहसा उनका चेहरा प्रसन्न हो गया। उन्होंने पूछा—“क्या कपालकुण्डला तुमसे मिलने जा रही है?”

कापालिकने कहा,—“नहीं?”

आशा-प्रदीप जलते ही बुझ गया। नवकुमारका चेहरा फिर पहले जैसा हो गया। बोले—“तो तुम राहसे हट जाओ।”

कापालिकने कहा—“राह छोड़ दूँगा, लेकिन तुमसे कुछ कहना है, पहले सुन लो।”

नवकुमार बोले,—“तुमसे मेरी कौनसी बात है? क्या तुम फिर मेरा प्राण लेने आये हो? तो ग्रहण करो, इस बार मैं मना न करूँगा। तुम जरा ठहरो, मैं अभी आता हूँ। मैंने क्यों न देवतुष्टिके लिये प्राण दिया! अब उसका फल भुगत रहा हूँ। जिसने मेरी रक्षा की थी, उसीने नष्ट किया। कापालिक! अब अविश्वास न करो। मैं अभी लौटकर, आत्म-समर्पण करता हूँ।

कापालिकने उत्तर दिया—“मैं तुम्हारे वधके लिए नहीं आया हूँ, भवानी की वैसी इच्छा नहीं। मैं जो करने आया हूँ, उसमें तुम्हारा भी अनुमोदन है। घर के अन्दर चलो, मैं जो कहता हूँ, उसे सुनो।”

नवकुमारने कहा—“अभी नहीं, फिर दूसरे समय सुनूँगा। तुम जरा मेरी अपेक्षा करो। मुझे बहुत जरूरी काम है, पूरा कर अभी आता हूँ।”

कापालिकने कहा—“वत्स! मैं सब जानता हूँ तुम उस पापिनीका पीछा करोगे। मैं जानता हूँ, वह जा रही है। मैं अपने साथ तुम्हें वहाँ ले चलूँगा। जो देखना चाहते हो दिखाऊँगा, लेकिन जरा मेरी बात सुन लो। डरो नहीं।”