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कपालकुण्डला
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दिखाई न पड़ा। कपालकुण्डलाने सोचा कि ब्रह्मवेशी उसके पीछे आ रहा है। घना जंगल पीछे छोड़ वह उस क्षुद्र जंगली राह पर आ गयी थी। वहाँ उतना अँधेरा न था, देखनेसे कुछ दिखाई पड़ सकता था, लेकिन उसे कुछ भी दिखाई न पड़ा। अतः वह फिर तेजीसे कदम बढ़ाती हुई चली, फिर पदशब्द सुनाई पड़ा। आकाश काली-काली घटाओंसे भयानक हो उठा था। कपालकुण्डला और भी तेजी से आगे बढ़ी। घर बहुत ही करीब था; लेकिन इसी समय हवा के झटकेके साथ बूँदी पड़ने लगी। कपालकुण्डला दौड़ी। उसे ऐसा जान पड़ा कि पीछा करनेवाला भी दौड़ा। घर सामने दिखाई पड़ते-न-पड़ते भयानक वर्षा शुरू हो गयी। भयानक गर्जनके साथ बिजली चमकने लगी। आकाशमें बिजलीका जाल बिछ गया और रह-रहकर वज्र टूटने लगा। कपालकुण्डला किसी तरह आत्मरक्षा कर घर पहुँची। पास का बगीचा पारकर दरवाजेके अन्दर दाखिल हुई। दरवाजा उसके लिए खुला हुआ था। दरवाजा बन्द करनेके लिए वह पलटी। उसे ऐसा जान पड़ा कि सामने दरवाजेके बाहर कोई वृद्धाकार मनुष्यमूर्ति खड़ी थी। इसी समय एक बार बिजली चमक गयी। उस एक ही चमकमें कपालकुण्डला उसे पहचान गयी। वह सागरतीरवासी वही कापालिक है।