“अच्छा, खानेके समय समझूँगा।” यह कहकर नवकुमार अकेले कमर कसकर कुठारहस्त होकर लकड़ी लानेको चल पड़े।
किनारेके करारपर चढ़कर नवकुमारने देखा कि जितनी दूर दृष्टि जाती है, कहीं भी बस्तीका कोई भी लक्षण नहीं है, केवल जंगल ही जंगल है। लेकिन वह जंगल बड़े-बड़े वृक्षोंसे पटा घना जंगल नहीं है, बल्कि स्थान-स्थानपर गोलाकार पौधोंके रूपमें चटियल भूमिखण्ड मात्र है। नवकुमारने उसमें जलानें लायक लकड़ी नहीं पायी। अतः उपयुक्त वृक्षकी खोजमें उन्हें नदी तटसे काफी दूर जाना पड़ा। अन्तमें लकड़ी काटने लायक एक वृक्षसे उन्होंने लकड़ी काटना शुरू किया। लकड़ी काट चुकनेपर उसे उठाकर ले आना, एक दूसरी समस्या आ खड़ी हुई। नवकुमार कोई दरिद्रकी सन्तान न थे कि उन्हें इसका अभ्यास होता; आनेके समय उन्हें इस समस्याका अनुभव ही न हुआ, अन्यथा जिस किसीको साथ ले ही आते। अब लकड़ीका ढोना उनके लिये एक विषम कार्य हो गया। जो भी हो, काममें प्रवृत्त हो जानेपर सहज ही उससे हताश हो जाना नवकुमार जानते न थे। इस कारण, किसी तरह कष्ट सहते हुए लकड़ी ढोकर नवकुमार लाने ही लगे। कुछ दूर बोझ लेकर चलनेपर थककर वह सुस्ताने लगते थे। फिर ढोते थे, फिर विश्राम करते थे; इसी तरह वे वापस होने लगे।
इस तरह नवकुमारके लौटनेमें काफी विलम्ब होने लगा। इधर उनके साथी उनके आनेमें विलम्ब होते देख उद्विग्न होने लगे। उन्हें यह आशंका होने लगी कि शायद नवकुमारको बाघने खा डाला। संभाव्य काल व्यतीत होनेपर उन लोगोंके हृदयमें यही सिद्धान्त जमने लगा। फिर भी, किसीमें यह साहस न हुआ कि किनारेके ऊपर चढ़कर कुछ दूर जाकर पता लगाये।