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आज के दर्बार में जो कुछ होना है इसकी खबर शहर के बड़े-बड़े रईसों और सर्दारों को भी जरूर थी मगर वे लोग जुबान से इस बारे में एक शब्द भी नहीं निकालते थे।

बाग में एक आलीशान बारहदरी थी, उसी में दरबार का इन्तजाम किया गया। उसकी सजावट हद्द से ज्यादे बड़ी हुई थी। खड़गसिंह ने राजा को कहला भेजा था कि दर्बार में एक सिंहासन भी रहना चाहिए जिस पर पदवी देने के बाद आप बैठाए जायेंगे, इसीलिए बारहदरी के बीचोंबीच में सोने का सिंहासन बिछा हुआ था, उसके दाहिनी तरफ राजा के लिए और बायीं तरफ नेपाल के सेनापति खड़गसिंह के लिए चांदी की कुर्सी रक्खी गई थी, और सामने की तरफ शहर के रईसों और सर्दारों के लिए दुपट्टी मखमली गद्दी की कुर्सियां लगाई गयी थीं। सजावट का सामान जो राजदर्बार के लिए मुनासिब था सब दुरुस्त किया गया था।

चिराग जलते ही दर्बार में लोगों की अवाई शुरू हो गई और पहर रात जाते-जाते दर्बार अच्छी तरह भर गया। राजा करनसिंह और खड़गसिंह भी अपनी-अपनी जगह बैठ गए। नाहरसिंह, बीरसिंह और बाबू साहब भी दर्बार में बैठे हुए थे मगर बाबाजी अपने मुँह पर नकाब डाले एक कुर्सी पर बिराज रहे थे जिनको देख लोग ताज्जुब कर रहे थे और राजा इस विचार में पड़ा हुआ था कि ये कौन हैं?

राजा या राजा के आदमी नाहरसिंह को नहीं पहिचानते थे पर बीरसिंह को बिना हथकड़ी-बेड़ी के स्वतन्त्र देखकर राजा की आँख क्रोध से कुछ लाल हो रही थीं मगर यह मौका बोलने का न था इसलिए चुप रहा, हाँ राजा की दो हजार फौज चारों तरफ से बाग को घेरे हुए थी और राजा के मुसाहब लोग इस दर्बार में कुर्सियों पर न बैठ के न-मालूम किस धुन में चारों तरफ घूम रहे थे।

सेनापति खड़गसिंह के भी चार सौ बहादुर लड़ाके जो नेपाल से साथ आए थे बाग के बाहर चारों तरफ बंट कर फैले हुए थे और नाहरसिंह के सौ आदमी भी भीड़ में मिले-जुले चारों तरफ घूम रहे थे। बाग के अन्दर दो हजार से ज्यादा आदमी मौजूद थे जिनमें पांच सौ राजा की फौज थी और बाकी रिआया।

जब दर्बार अच्छी तरह भर गया, खड़गसिंह ने अपनी कुर्सी से उठ कर ऊँची आवाज में कहा: