नाहर॰: न-मालूम आप क्यों ऐसा कह रहे हैं!
बाबा: (खड़गसिंह से) आप गवाह रहिये, नाहर कहता है कि मैं कुछ न बोलूँगा।
खड़ग॰: मैं खुद हैरान हूँ कि नाहर क्यों बोलेगा!!
बाबा: अच्छा, फिर हजाम को बुलवाइये, अभी मालूम हो जाता है। लेकिन आप और नाहर थोड़ी देर के लिए मेरे साथ एकान्त में चलिए और हजाम को भी उसी जगह आने का हुक्म दीजिये।
आखिर ऐसा ही किया गया। बाबाजी, खड़गसिंह और नाहरसिंह एकान्त में गए, हजाम भी उसी जगह हाजिर हुआ। बाबाजी ने जटा कटवा डाली, दाढ़ी मुड़वा डाली और मूँछों के बाल छोटे-छोटे कटवा डाले। नाहरसिंह और खड़गसिंह सामने बैठे तमाशा देख रहे थे।
बाबाजी के चेहरे की सफाई होते ही नाहरसिंह की सूरत बदल गई, चुप रहना उसके लिए मुश्किल हो गया, वह घबड़ाकर बाबाजी की तरफ झुका।
बाबा: हाँ हाँ, देखो! मैंने पहिले ही कहा था कि तुमसे चुप न रहा जाएगा!!
नाहर॰: बेशक, मुझसे चुप न रहा जाएगा! चाहे जो हो मैं बिना बोले कभी न रह सकता!!
खड़ग॰: नाहरसिंह! यह क्या मामला है?
नाहर॰: नहीं नहीं, मैं बिना बोले नहीं रह सकता!!
बाबा: यह तो मैं पहिले ही से समझे हुए था, खैर, हजाम को बिदा हो लेने दो, केवल हम तीन आदमी रह जायं तो जो चाहे बोलना।
हजाम बिदा हुआ, दो खिदमतगार बुलाये गए, बाबाजी ने उसी समय सिर मल के स्नान किया और उनके लिए जो कपड़े खड़गसिंह ने मँगवाए थे उन्हें पहन कर निश्चिन्त हुए, मगर इस बीच में नाहरसिंह के दिल की क्या हालत थी सो वही जानता होगा। मुश्किल से उसने अपने को रोका और मौके का इन्तजार करता रहा। जब इन कामों से बाबाजी ने छुट्टी पाई, तीनों आदमी एकान्त में बैठे और बातें करने लगे।
न मालूम घण्टे-भर तक कोठरी के अन्दर बैठे उन तीनों में क्या-क्या बातें