खड़ग॰: उस समय जब मैं बीरसिंह को छुड़ाने के लिए राजा के पास गया था तो समयानुसार मुनासिब समझ कर उसी के मतलब की बातें की थीं। मैं कह आया था कि कल एक आम दरबार करूँगा और तुम्हारे दुश्मनों तथा बीरसिंह को फाँसी का हुक्म दूँगा, उसी दरबार में महाराज नेपाल की तरफ से तुमको "अधिराज" की पदवी भी दी जायगी। यह बात मैंने कई मतलबों से कही थी। इस बारे में तुम्हारी क्या राय है?
नाहर॰: बात तो बहुत अच्छी है। इस दरबार में बड़ा मजा रहेगा, कई तरह के गुल खिलेंगे मगर साथ ही इसके फसाद भी खूब मचेगा, ताज्जुब नहीं कि राजा बिगड़ जाय और लड़ाई हो पड़े, इससे मेरी राय है कि कल का दिन आप टाल दें और लड़ाई का पूरा बन्दोबस्त कर लें, इस बीच मैं भी अपने को हर तरह से दुरुस्त कर लूँगा।
खड़ग॰: (और सरदारों की तरफ देख कर) आप लोगों की क्या राय है?
सरदार: नाहरसिंह का कहना बहुत ठीक है, हम लोगों को लड़ाई के लिये तैयार हो कर ही दरबार में जाना चाहिए। हम लोग भी अपने सिपाहियों की दुरुस्ती करना चाहते हैं, कल का दिन टल जाय तभी अच्छा है।
खड़ग॰: खैर, ऐसा ही सही।
गुप्तरीति से राय के तौर पर दो-चार बातें और करने के बाद दरबार बर्खास्त किया गया। बाबू साहब को साथ लेकर नाहरसिंह चला गया। सरदार लोग भी अपने-अपने घर की तरफ रवाने हुए, खड़गसिंह अपने डेरे पर आये और बीरसिंह को होश में पाया, उनसे सब हाल कहा-सुना और उनका इलाज कराने लगे।
१३
खड़गसिंह जब राजा करनसिंह के दीवानखाने में गये और राजा से बातचीत करके बीरसिंह को छोड़ा लाये तो उसी समय अर्थात जब खड़गसिंह दीवानखाने से रवाने हुए तभी राजा के मुसाहबों में सरूपसिंह चुपचाप खड़गसिंह के पीछे-पीछे रवाना हुआ वहाँ तक आया जहाँ सड़क पर खड़गसिंह और नाहरसिंह से मुलाकात हुई थी और खड़गसिंह ने पुकार कर पूछा था, "कौन है, नाहरसिंह।"
सरूपसिंह उसी समय चौंका और जी में सोचने लगा कि खड़गसिंह दिल में