विचार कर ऊपर की छत पर चली गई और धीरे-धीरे उस पाटन की तरफ चली जो दीवानखाने की छत से मिली हुई थी। कमर-भर ऊँची दीवार फाँद कर वहाँ पहुँची। वहाँ छोटे-छोटे कई सूराख ऐसे थे जिनमें से झाँक कर देखने से दीवानखाने की कुल कैफियत मालूम हो सकती थी। मेरे जाने के पहिले ही दो औरतें वहाँ पहुँची हुई थीं।
साधु: वे दोनों कौन थीं?
तारा: दोनों रानी साहबा की लौंडियाँ थीं, मुझे देखते ही मेरे पास पहुँचीं और हाथ जोड़ कर बोलीं- "ईश्वर के वास्ते आप कोई ऐसा काम न करें जिसमें हम लोगों की और आपकी भी जान जाय, अगर राजा जान जायगा या किसी ने देख लिया तो बिना जान से मारे न छोड़ेगा!" इसके जवाब में मैंने कहा-"तुम खातिर जमा रक्खो, किसी को कुछ भी खबर न होगी।"
यह दीवानखाना पुराना था, जब से राजा ने अपने लिए दूसरा दीवानखाना बनवाया तब से वर्षों हुए यह खाली ही पड़ा रहता था, इसमें कभी चिराग भी नहीं जलता था, लोगों का खयाल था कि इसमें भूत-प्रेत रहते हैं इसलिए कोई उस तरफ जाता भी न था। मैंने सूराख में से झाँक कर देखा, सामने ही बेचारी अहिल्या सिर झुकाए बैठी आँसू गिरा रही थी, एक तरफ कोने में पाँच-चार कुदाल जमीन खोदने वाले पड़े थे। दूसरी तरफ मिट्टी के बीस-पच्चीस घड़े जल से भरे पड़े हुए थे। अहिल्या के सामने राजा खड़ा उसी की तरफ देख रहा था, राजा के पीछे मेरा बाप सुजनसिंह, रामदास और हरीसिंह राजा के मुसाहब खड़े थे। मेरे बाप की गोद में एक लड़की थी जिसकी उम्र लगभग तीन वर्ष के होगी। हाय, उसकी सूरत याद पड़ने से रोंगटे खड़े हो जाते हैं! उसकी सूरत किसी तरह भुलाये नहीं भूलती। राजा ने अहिल्या से कहा-"सुन्दरी, तू मेरी बात न मानेगी? तू मेरी होकर न रहेगी?"
साधु: क्या नाम लिया, सुन्दरी!
तारा: जी हाँ, सुन्दरी। उसी समय मुझे मालम हुआ कि उसका नाम सुन्दरी भी है।
साधु: हाय, अच्छा तब क्या हुआ?
तारा: सुन्दरी ने सिर हिला कर इनकार किया।
साधु: तब?