किसी लौंडी से चुपके-चपके रानी को यह कहते मैंने सुन लिया कि 'अब तो अहिल्या को दूसरा लड़का भी हुआ, पहिली लड़की तीन वर्ष की हो चुकी, ईश्वर करे उसका पति जीता रहे, सुनते हैं, बड़ा ही लायक है और अहिल्या को बहुत चाहता है।'
अहिल्या के सामने ही मेरी शादी बीरसिंह से हो चुकी थी और मैं अपने ससुराल में रहने लग गई थी। अहिल्या के गायब होने का रंज मुझे और बीरसिंह को भी हुआ था और इसी से मैंने महल में आना-जाना बहुत कम कर दिया था मगर जिस दिन रानी की जुबानी ऊपर वाली बात सुनी, मुझे एक तरह की खुशी हुई। मैंने यह हाल बीरसिंह से कहा, वह भी सुनकर बहुत खुश हुए और समझ गये कि रानी ने उसे कहीं भेजवा कर उसकी शादी करा दी थी। उसके बाद यह भेद भी खुल गया कि रानी ने उसे अपने नैहर भेज दिया था!
साधु: तुम्हारे ससुराल में कौन-कौन है?
तारा: नाम ही को ससुराल है, असल में मेरा सच्चा रिश्तेदार वहाँ कोई भी महीं, हाँ, पाँच-सात मर्द और औरतें हैं, हमारे पति उनमें से किसी को चाचा, किसी को मौसा, किसी को चाची इत्यादि कह के पुकारा करते हैं, असल में उनका कोई भी नहीं है। उनके माँ-बाप उनके लड़कपन ही में मर गए थे और राजा ने उन्हें पाला था। राजा उन्हें बहुत मानते थे मगर फिर भी वे कहा करते थे कि राजा बड़ा ही बेईमान है, एक-न-एक दिन हमसे और उससे बेतरह बिगड़ेगी।
साधु: खैर, तब क्या हुआ?
तारा: बहुत दिन बीत जाने पर एक दिन रानी ने मिलने के लिए मुझे महल में बुलाया। मैं गई और तीन-चार दिन तक वहाँ रही। इसी बीच में एक दिन रात को मैं महल में लेटी हुई थी, मेरा पलंग रानी की मसहरी के पास ही बिछा हुआ था, इधर-उधर कई लौंडियां भी सोई हुई थीं, रानी भी नींद में थीं, मगर मुझे नींद नहीं आ रही थी। यकायक यह आवाज मेरे कान में पड़ी-"हाय, आखिर बेचारी अहिल्या फँस ही गई। चलो दीवानखाने के ऊपर वाले छेद से झाँक कर देखें कि किस तरह बेचारी की जान ली जाती है फिर आकर रानी को उठावें।"
इस आवाज को सुनते ही मैं चौंक पड़ी, कलेजा धकधक करने लगा, बेताबी ने मुझे किसी तरह दम न लेने दिया, मैं चारपाई पर से उठ बैठी और कुछ सोच