पृष्ठ:कटोरा भर खून.djvu/६

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और सुजनसिंह उस आदमी के पास जाकर धीरे-से बोला, "भाई रामदास, अगर तुम मुझे यहाँ से चले जाने की आज्ञा दे देते तो मैं जन्म-भर तुम्हारा अहसान मानता!!"

रामदास : कभी नहीं, कभी नहीं!

सुजन॰ : तो क्या मुझे अपने हाथ से अपनी लड़की तारा का खून करना पड़ेगा?

रामदास : बेशक, अगर वह मंजूर न करेगी तो।

सुजन॰ : नहीं नहीं, ऐसा कैसे हो सकता है! अभी से मेरा हाथ काँप रहा है और कटार गिरी पड़ती है।

रामदास : झख मार के तुम्हें ऐसा करना होगा!

सुजन॰ : मेरे हाथों की ताकत तो अभी से जा चुकी है, मैं कुछ न कर सकूँगा।

रामदास : तो क्या वह 'कटोरा-भर खून' वाली बात मुझे याद दिलानी पड़ेगी?

सुजन॰ : (काँप कर) ओफ! गजब है!! (रामदास के पैरों पर गिर कर) बस बस, माफ करो, अब फिर उसका नाम न लो! मैं करूँगा और बेशक वही करूँगा जो तुम कहोगे। अगर मंजूर न करे तो अपने हाथ से अपनी लड़की तारा को मारने के लिए मैं तैयार हूँ, मगर अब उस बात का नाम न लो! हाय, लाचारी इसे कहते हैं!!

रामदास : अच्छा, अब हम लोगों को यहाँ से निकल कर फाटक की तरफ चलना चाहिए।

सुजन॰ : जो हुक्म।

राम॰ : मगर नहीं, क्या जाने ये लोग उधर न जायें। हाँ देखो, वे दोनों उठे। मैं बीरसिंह के पीछे जाऊँगा, तारा तुम्हारे हवाले की जाती है।

इधर बंगले में बैठे हुए बीरसिंह और तारा की बातचीत समाप्त हुई। इस जगह हम यह नहीं कहा चाहते कि उन दोनों में चुपके-चुपके क्या बातें हुई, मगर इतना जरूर कहेंगे कि तारा अब प्रसन्न मालूम होती है, शायद बीरसिंह ने कोई बात उसके मतलब की कही हो या जो कुछ तारा चाहती थी उसे उन्होंने मंजूर किया हो!

बीरसिंह और तारा वहाँ से उठे और एक तरफ जाने के लिए तैयार हुए।